Friday 13 October 2017

गुजर गए जो लम्हे

बड़ी ही लालसा थी मन में
जाने की उस शहर में ..
जहाँ बचपन से लेकर
अल्हड़ यौवन की
दहलीज पार की
और एकबार फिर
जब वहां जाने का
मिला मौका
तो लगी झूमने खुशी के मारे ..
पहँचते ही लगी मैं ढूंढने
पुराने सारे ठिकाने
जहाँ सहेलियों के
संग करती थी मैं
मटर गस्तियाँ..
अरे ये क्या ?
यहाँ तो सब कुछ बदल गया
लुका छिपी के
सारे अड्डे गायब हो गये
बचपन के अठखेलियों के
सारे गायब देख निशानियाँ
मन भी खट्टा सा हो गया
उस जगह बड़ी बड़ी
इमारतें थी खड़ी..
जिस यादों को संजोकर
निकली थी घर से मैं
मिला न तसल्ली देखकर ..
फिर याद आई
एक सहेली की
जिसके साथ स्कूल
जाती थी मैं रोजाना 
देखूँ वो ससुराल में है या
आई हुई है मायका !!
सोचते सोचते उसके
घर मैं पहँच भी गई ..
संयोग से वो मिल भी गई ।
हम बरसों बाद मिल रहे थे !!
हैरानी से एक दूसरे को
देखते ही रह गए ..
खुशी के मारे एक दूसरे के
बाँहों में झूल गए ..
चाय नास्ता के बीच बीच में
बातें भी कर रहे थे ..
बहुत शांत और खुशनुमा माहौल में
हम पुराने दिन को
याद कर हँस रहे थे ..
पर एक ठहराव सा था
माहौल में ..
वो लड़कपन न था
कहकहों में उनमुक्तता न थी 
पहले वाली कोई
बात न बची थी बाकी ..
बहुत गंभीर वो दिखने लगी थी ।
उसके चेहरे पे हरदम मुस्कान
पहले रहता था बिखरा ..
मै कभी नाराज भी रहती
तो भी वो मुस्कुराती रहती
मैंने एक दिन कहा झल्ला कर ..
मैं हूँ दुखी तू हँस रही
उसने कहा क्या करूँ
शक्ल ही ऐसी है !!
रोनी सूरत दिखती
न किसी को !!
पर वो अब वैसी न थी
जो उसमें मैं खोज रही थी ..
शायद लम्हे जो बीत जाते
वो फिर ढूंढने से भी नहीं मिलता
मिलता न कोई
उसकी निशानियाँ ..

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