विधा - - - -सार ललित छन्द
भीड़ में सब एक दूजे को ,,,रौंद ही डालते हैं 1.
चींटी चलते पंक्ति बनाकर ,, मनु नियम तोड़ते हैं
धीरज धर ले हर कोई तो,,,घटना टल सकती है
कभी न कुंभों के मेले में ,,,भगदड़ मच सकती है
होड़ लगी लोगों में कैसी,,,सब में मारा मारी 2.
छीने भाई के हक, लालच ,,अब रिश्तों पे भारी
जिनको कद्र नहीं रिश्तों का,,उसे कौन अपनाया
लगे बोझ माता पिता जिन्हें ,, समझो विनाश आया
जगह मिले सबको ही अपना ,,ये तो हक जन जन का 3.
छीने न कोई किसी का हक, समाज हो समता का
अनुशासन से इंसानों का,,व्यक्तित्व निखर जाता
सत्य की राह में शूल भले,, युग पुरुष न घबराता
निस्काम कर्मों से फल मिले,,,यही भाव गीता का 4.
काम क्रोध,लोभ,मद छोड़ने ,, पे उत्थान सबों का
बैर भाव का जो त्याग करे,,,निर्मल मन हो जाते
दुख में दया प्रेम दिखलावे ,,, वही मनुज कहलाते
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