मनमोहन की बाँसुरी , सुन मन शीतल होय
कामिनि खोई शून्य में,सुध बुध सारी खोय
देखी छवि चितचोर की ,हृदय गए हम हार
रूप अलौकिक मन बसा,मोहित हुए अपार
वृन्दावन की भूमि में, छलक रहा है नेह
रास रचा रहे कान्हा , आह्लादित सब गेह
पीकर चितवन की नशा,छोड़ दिए घर द्वार
रैन संग चंदा गया ,बिखरे सब श्रृंगार
भंवर में डूब रही गोपी , श्याम छुड़ा गए हाथ
विरह अग्नि में जला के ,,वो कर गए अनाथ
उद्भव की सुन गोपियां, सहें विरह की पीर
मन मोहन के संग गया, हो कैसे अब धीर
धरो ध्यान घनश्याम का ,करके उर उजियार
हुए प्रतिष्ठित हिय में,, अब कैसा घर बार
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