Tuesday 25 June 2019

कुप्रथा

गीत(16/14 अंत गुरु लावणी छंद)
मुखड़ा   

कुरीति की बलि बेदी क्यों कर ,चढ़ती हर युग में नारी
किस्मत की मारी को ठोकर , मारे जग बारी बारी

अंतरा

नियति ने बीच भंवर छोड़ा,,मौन दृग से न नीर बहा
पूत संग रह गई अकेली ,, भरी जवानी में तन्हा
कामना राख सम बिखर गई,,कटे जीवन वेदना में
पीर विरह का अब जीवन भर ,,कहाँ अब स्वप्न नैनों में
अभागिनी को कौन मान दे,, अंतस जले पीर भारी
कुरीति के बलिबेदी...

रंग हीन जीवन में आशा ,,की किरण अब कैसे जले
नेह का डोर थाम जी रही ,,दिल में सुत के ख्वाब पले
पीर से पाषाण हृदय बना,, अटल चली कर्तव्य पथ में
पुत्र संग खुश माँ पल रहा  ,, वो ममता के आँचल में
हुई सफल तप सुत के सुंदर ,,भविष्य पे माँ बलिहारी
कुरीति के बली बेदी....

पुलक रही अबला बेटा को , जी भर आज निहारेगी
घोड़ी चढ़ पुकार रहा पूत , कब तक माँ तिलक करेगी
सबकी नजर से बचाने लगा ,, देती जो टीका कालें
वही माँ अपशगुन बनी चली,,,कुप्रथा गहरी चालें
हतभागी वैधव्य बुत बनी , अभागिनी ननद पुकारी
 कुरीति के बली बेदी....

देर देख बेटा आशंकित , घर में माँ को खोज रहा
अपशगुनी कैसे तिलक करे, माँ को किसी ने कहा
कुलजन संवेदन हीन बने,, हृदय पूत का व्यथित हुआ
धूँध छँटा सबके मन का जब,,सुत सबपर नाराज हुआ
पहचान माँ से,शगुन भी वो,, माँ फिर आरती उतारी
कुरीति पर वार....

शुभ अशुभ बात मन गढ़ंत ये ,, सभी बंदिशे न चलेगी
फिजूल की मनमर्जियाँ अब न,,नारी को कभी छलेगी
माँ ने शीर्ष पर पहुँचाया ,,  सबसे पहला हक उनका
हम सब की है जिम्मेदारी,, बहिष्कार करें प्रथा का
इस जग में माँ से अधिक नहीं ,, होती कोई उपकारी

कुरीति के बलि बेदी क्यों कर,,चढ़ती हर युग में नारी
किस्मत की मारी को ठोकर, मारे जग बारी बारी

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