Tuesday 30 July 2019

कर्तव्यहीन पुत्र

विधा सार छंद गीत --16/ 12

जब आता है पूत गर्भ में ,, माँ पितु स्वप्न सजाए
लाल हमारा दुख हर लेगा,,दिल फूले न समाए

पुत्र जनम से निहाल माता  ,,सुध अपनी  बिसराई
जग जग कर हर रैना काटी,,,सब सुख चैन लुटाई
जब  रहे दुख घनेरे आत्मज,, देख देख बिसराई
दुग्ध पान जब सुत करे मातु ,,हृदय तब मुस्कुराई
किलकारी जब ले कभी पूत ,,,माँ हिय बलि बलि जाए
लाल हमारा दुख हर लेगा,,,दिल फूले न समाए

कमी की न किसी बात की भी , यथा साधन जुटाई
बच्चों को संस्कार की दिन ,,,रैन घुट्टी पिलाई
यौवन के दहलिज पुत्र खड़ा,,,पितृ माँ हिय अकुलाई
ढूंढ़ ढूढ़ जग से सुन्दर सी  ,,,दुल्हनियाँ ले आई
पायल बजे बहू की छन छन,,,सास के हृद जुड़ाए
लाल हमारा दुख हर....

खुशियों की दरिया नित बहती,, रहती घर आंगन में
टूट गया घर क्यों, नजर लगी ,,, किसी की परिवार में
पति चल बसे जब,बहू को अब ,, सास तनिक न सुहाती
रोज रोज पति के कानों में,,, कुछ कह कर भड़काती
मोहनी सी सूरत बहू के  ,,,, सभी देख भरमाए
लाल हमारा दुख हर लेगा ...

बेटा बहू उस दिन माँ को ,,,,अति फटकार लगाई
दुखी हमेशा की चिक चिक से,, होती खूब लड़ाई
भूल गया अधम यही मात ने,, शोणित पिला जिलाई
पालने में भूल न की, रव ने,,, उन्नत बीज सड़ाई
आसरा ली अनाथाश्रम में  , दुख दर्द  बिन बताए

पूत गर्भ में जब आए तब,,माँ पितु स्वप्न सजाए
लाल हमारा दुख हर लेगा,,दिल फूले न समाए

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Sunday 28 July 2019

श्रमिक

विधा - दोहे

धरा  पुत्र होते श्रमिक ,,हृदय भरे अरमान
रवि के ढ़लने तक कृषक ,,नित्य करे श्रम दान 1.

धरती सोना तब बने,,,बहे कृषक के स्वेद
भंडार भरे अन्न से  ,, करते नहीं  विभेद        2.

प्रकृति जब तांडव करे ,, हिम्मत हृदय अटूट
घाव जब देते अपने   ,दिल जाते फिर टूट      3.

सोने को है घर नहीं,,,सपने नैन हजार
भोजन न भर पेट मिले,,कोई न मददगार      4.

इरादे बुलंद उसके ,, वृहद परिपक्व सोच
भोले भाले हो भले,, मन में होता ओज        5.

नेता स्वार्थ में फंसकर ,,बहुत बिछाया जाल
ठेंगा दिखाया सबको ,,गली नहीं  फिर दाल    6.

सुविधा हीन रहकर भी ,,उन्हें है एक आस
सपना देखते हरदम ,, भारत करे विकास       7.

प्रीतम से मनुहार

दुर्मिल सवैया (आठ सगण 122)
112   112    112 112   112   112  112   112

सुन साजन प्यार मुझे करना,तुम रूठ रहे दिल टूट गया
तुमसे यह जीवन है अपना ,,उर प्रीत भरे भरपूर  पिया ।
तुझ संग जुड़ा यह जीवन है,तुम जो बदले जग छूट गया
जब खोट नहीं तुझमें सजना,, फिर कौन कहे रब रूठ गया ।

जगती अखियां अब देख रहीं, सपना जब प्रीतम बाँह भरे  ।
अपनी सब ही बतियाँ बतला,, कर वो मुझ से इकरार करे   ।
जब नैन मिले उनसे फिर तो ,,मिलके शिकवे सब आज करे
खुशियाँ कितनी मिलती, बरसों,,प्रिय साथ रहे बस प्यार करे ।  

जब दो दिल एक हुए हिय में,,तब प्रीत पगे, छुपके  सबसे ।
जब साथ रहे बनती बिगड़ी,, खुद ही फिर प्रेम करे उनसे   ।
इतरा कर मैं मन की करने,, पलटी मुख फेर लिये उनसे  ।
पल में  पिघली  दृग नीर बहे, उनको फिर देख लिये जबसे ।


सावन आया

विधा- मनहरण घनाक्षरी ( कवित्त)
8,8,8,7
पिया  सावन आ गया
गगन घन छा गया
बूँदे नेह जगा गया
मन दहक रहा  ।

कोकिल गीत सुनाती
सखियां कजरी गाती
प्रिया पिया पुकारती
मेघ बरस रहा ।

 झूले पड़े हैं बागों में
 मेंहदी रची हाथों में
 मन पी के बातों में
 हियरा भीग रहा ।

हरी भरी है वादियां
कुसुमित है बगिया
मधुमास जगत भाया
भ्रमर गूँज रहा ।

प्रियतम हो बाँहों में
भींग रहें हो राहों में
अगन लगी दिलों में
प्रेम छलक रहा ।

हियरा अगन लगी
अंतस प्यास जगी
आतुर कीट पतंगा
उर आह भर रहा ।

पीत पर्ण झड़ गए
तरू पल्लवित हुए
 प्रेममय जगत हुआ
 मदन जाग रहा ।

वर्षा ऋतु अति प्यारी
सुरमयी सांझ न्यारी
प्रियतमा दिल हारी
 प्रेमी मचल रहा ।

लाड़ली की विदाई

विधा- मालिनी छंद वर्णिक
आठ / सात वर्ण पर यति
111  111    222      122   122
पल पल दिल रोता,,जा रही छोड़ लाड़ो
तुम बिन अब कैसे,,वक्त बीते पहाड़ों
हृदय व्यथित भेजा,, संग डोली नगाड़े
घर पर तनया की ,माँ अभी भी दहाड़े

हर पल स्मृति में ही,, गोद मासूम लेटी
शिखर सम पिता भी,, है खड़ा देख बेटी
सहज गुनगुनाती,, बेतहासा अभी दौड़ी
मुड़ कर जब देखा ,, वो पिता धाम छोड़ी

नयन जल बहे हैं ,, क्यों जरूरी विदाई 
चलन जगत की क्यों  ,, है तनुजा पराई
बिछुड़ कर सुता तो,, भूल जाती रवानी
बचपन छिन लेती,, है जवानी  दिवानी

रज कण बिछ जाए,,राह आशीष पा ले
तज कर पितु गेहों ,को जहाँ तू बसा ले
उथल पुथल भारी,,है नई जो बहारें
बरबस अब लाई,,, नेह बूँदें फुहारे 

राम सिया वनवास

विधा-चौपाई (16 भार मात्रा )

जभी कुमति ने डेरा डाला
आ ही गया दिवस फिर काला
जा रहा विटप राज दुलारा
छा गया नगर में अँधियारा ।।

युवराज चले अब महलों के
जो थे ज्योति सभी नैनों के
दुखद घड़ी की बेला आई
राज महल में दुर्दिन छाई   ।।

राम दुखों का कारण जाना
आदेश पिता का फिर माना
राग द्वेष बिन आज्ञा कारी
लगी कैकयी माता प्यारी  ।।

रघुवर नंगे पाँव चले वन
निष्प्राण हुए हैं सबके मन
लहर शोक की जन जन छाई
नगर अयोध्या विपदा आई

कौशल्या को मुर्छा छाई
गंगा यमुना नीर बहाई
बजे महल में पायल किसकी
बसे प्राण सीता में उसकी

हुआ पिया बिन जीना भारी
रही अधूरी पति बिन नारी
मौन उर्मिला थी शर्मीली
नैन नीर रख रही अकेली

चली विमाता चालें कैसी
कसम खिला दी क्यों कर ऐसी
पुत्र राम प्रस्थान किए वन
दशरथ तज दिए प्राण ततक्ष्ण

छा गई महल अजब उदासी
हुए राम लक्ष्मण वनवासी
विधान विधि का किसने जाना
दासी का क्यों कहना माना

भरत खबर सुन दौड़े आए
प्रजा संग माता को लाए
चरण पकड़ भाई के रोया
राम भरत को गले लगाया।।

मिलन घड़ी पर सब हैं रोए
देख राम को सुध बुध खोए
किस्मत ने सब खेल रचाया
कानन कुँज भी अश्रु बहाया

राम भरत को फिर समझाया
कर्तव्य सभी फिर बतलाया
कर्म करो तुम जब तक आऊँ
लौटे लेकर भरत खड़ाऊँ ।।

महान पूत राम कहलाते
मर्यादा की रीत सिखाते
सारे जग हो कुटुम्ब जैसे
युगों जनम लेते मनु ऐसे

श्री राम वनवास

विधा-चौपाई

कैकयी सिया राम से  ,,करती स्नेह  अटूट
थी मंथरा कुटिल बहुत ,,हृदय डाल दी फूट
 
जभी कुमति ने डेरा डाला
आ ही गया दिवस फिर काला
 जा रहा विटप राज दुलारा
 छा गया नगर में अँधियारा

युवराज चले अब महलों के
जो थे ज्योति सभी नैनों के
दुखद घड़ी की बेला आई
राज महल में दुर्दिन छाई

कारण दुख का जान लिया
आदेश पिता का मान लिया
राग द्वेष  बिन आज्ञा कारी
लगी कैकयी माता प्यारी

रघुवर नंगे पाँव गए वन
सबके निष्प्राण हुए मन
लहर शोक की जन जन छाई
 नगर अयोध्या विपदा आई

कौशल्या को  मुर्छा छाई  ।
गंगा यमुना नीर बहाई    ।
बजे महल में पायल किसकी
बसे प्राण सीता में उसकी

वैदेही जब वन चली ,,कानन विटप उदास
सिया पाँव छाले पड़े,,मलिन मुख नहीं खास 

हुआ पिया बिन जीना भारी
रही अधूरी पति बिन नारी
मौन उर्मिला थी शर्मीली
नैन नीर रख रही अकेली ।।

चली  विमाता चालें कैसी
कसम खिला दी क्यों कर ऐसी ।
पुत्र राम प्रस्थान किए वन
दशरथ तज दिए प्राण तत्क्षण  ।।

छा गई महल अजब उदासी
हुए राम लक्ष्मण  वनवासी
विधि का विधान किसने जाना
दासी का क्यों कहना माना

भरत खबर सुन दौड़े आए
प्रजा संग माता को लाए
चरण पकड़ भाई के रोया
राम भरत को गले  लगाया  ।। 

दोनों भाई मिल रहे,,  नैन बह रहे नीर
रघुवर भी विचलित हुए ,,था द्रवित उर अधीर

भाई मिलाप पीर भरा था
सब नैनों में अश्रु भरा था
किस्मत ने सब खेल रचाया
कानन कुँज भी अश्रु बहाया  ।।

राम भरत को फिर समझाए
कर्तव्य सभी फिर बतलाए
कर्म करो तुम जब तक आऊँ
लौटे लेकर भरत खड़ाऊँ  ।।
 
महान पूत राम कहलाते
मर्यादा की रीत सिखाते
सारे जग हो कुटुम्ब जैसे
युगों जनम लेते मनु ऐसे  ।।

व्याकुल माँ कहती फिरे ,,हुआ ग्रह का मेल
राम सिया वन वन फिरे,,भाग्य का है खेल

 

Saturday 27 July 2019

श्री राम वनवास

विधा-चौपाई

कैकयी सिया राम से  ,,करती स्नेह  अटूट
थी मंथरा कुटिल बहुत ,,महल डाल दी फूट
 
जभी कुमति ने डेरा डाला
आ ही गया दिवस फिर काला
 जा रहा विटप राज दुलारा
 छा गया नगर में अँधियारा

युवराज चले अब महलों के
जो थे ज्योति सभी नैनों के
दुखद घड़ी की बेला आई
राज महल में दुर्दिन छाई

कारण दुख का जान लिया
आदेश पिता का मान लिया
राग द्वेष  बिन आज्ञा कारी
लगी कैकयी माता प्यारी

रघुवर नंगे पाँव गए वन
सबके निष्प्राण हुए मन
लहर शोक की जन जन छाई
 नगर अयोध्या विपदा आई

कौशल्या को  मुर्छा छाई  ।
गंगा यमुना नीर बहाई    ।
बजे महल में पायल किसकी
बसे प्राण सीता में उसकी

वैदेही जब वन चली ,,कानन विटप उदास
सिया पाँव छाले पड़े,,मलिन मुख नहीं खास 

हुआ पिया बिन जीना भारी
रही अधूरी पति बिन नारी
मौन उर्मिला थी शर्मीली
नैन नीर रख रही अकेली ।।

चली  विमाता चालें कैसी
कसम खिला दी क्यों कर ऐसी ।
पुत्र राम प्रस्थान किए वन
दशरथ तज दिए प्राण तत्क्षण  ।।

छा गई महल अजब उदासी
हुए राम लक्ष्मण  वनवासी
विधि का विधान किसने जाना
दासी का क्यों कहना माना

भरत खबर सुन दौड़े आए
प्रजा संग माता को लाए
चरण पकड़ भाई के रोया
राम भरत को गले  लगाया  ।। 

दोनों भाई मिल रहे,,  नैन बह रहे नीर
रघुवर भी विचलित हुए ,,था द्रवित उर अधीर

भाई मिलाप पीर भरा था
सब नैनों में अश्रु भरा था
किस्मत ने सब खेल रचाया
कानन कुँज भी अश्रु बहाया  ।।

राम भरत को फिर समझाया
कर्तव्य सभी फिर बतलाया
कर्म करो तुम जब तक आऊँ
लौटे लेकर भरत खड़ाऊँ  ।।
 
महान पूत राम कहलाते
मर्यादा की रीत सिखाते
सारे जग हो कुटुम्ब जैसे
युगों जनम लेते मनु ऐसे  ।।

व्याकुल माँ कहती फिरे ,,हुआ ग्रह का मेल
राम सिया वन वन फिरे,,भाग्य का है खेल

 

Wednesday 24 July 2019

कुब्जा हुई सीधी

दिन- शनिवार

कंस के आमंत्रण पर, कृष्ण  मथुरा पहुँचे
जन्म भूमि का तिलक ले,मात की मुक्ति सोचे

मथुरा में कृष्ण को एक , वृद्धा पर दृष्टि पड़ी
केसर चंदन तिलक हार, वो थी लेकर खड़ी

कमर उसकी झूकी थी, पीठ पर कुबड़ पड़ी
महल में बूढ़ी कुब्जा , ही नामकरण पड़ी

राजा कंस के लिए वो, सुंदर हार बनाती
उसका नित्य कार्य था , मन से रोज करती

बीच राह रोक कान्हा,  हँसते हुए बोले
कहाँ लिए जा रही, कंस! आज परलोक चले

रूपसी ये सुन ले तुम ,,कंस न राजा तेरा
केसर टीका हार से,, कर सत्कार मेरा

नहीं उड़ाओ मजाक , न बोल मुझसे झूठ
मेरे स्वामी कंस सदा, दुँगी उन्हीं को भेंट

एक लात में सीधी हो, गई कुब्जा बूढ़ी
अज्ञान की पट्टी खुली,कान्हा के पग पड़ी