Thursday 26 September 2019

दर्द दरिया की

विधा - मालिनी छंद

111 111 222 122  122
हर पल सहती नारी युगों से अकेली
सरस मन कभी कोई लगी ना पहेली
पल पल वह मुस्काती भली वो छबेली
सरल हृदय की होती खुशी ही सहेली

मुड़ कर न कभी देखी, पिता गृह छोड़ी
सहज गुनगुनाती बेतहासा न दौड़ी
बरबस उनको बाँहे पसारे पुकारे
उथल पुथल भारी आ गई जो बहारें

नयन जल बहे वो क्यों हुई थी परायी
चलन जगत की तुम्हें निभानी सदा ही
बिछुड़ कर सुता तो भूल जाती रवानी
बचपन छिन लेती है जवानी दिवानी

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