विधा - मालिनी छंद
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हर पल सहती नारी युगों से अकेली
सरस मन कभी कोई लगी ना पहेली
पल पल वह मुस्काती भली वो छबेली
सरल हृदय की होती खुशी ही सहेली
मुड़ कर न कभी देखी, पिता गृह छोड़ी
सहज गुनगुनाती बेतहासा न दौड़ी
बरबस उनको बाँहे पसारे पुकारे
उथल पुथल भारी आ गई जो बहारें
नयन जल बहे वो क्यों हुई थी परायी
चलन जगत की तुम्हें निभानी सदा ही
बिछुड़ कर सुता तो भूल जाती रवानी
बचपन छिन लेती है जवानी दिवानी
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