विधा - गीत
नभ छतरी ताने नेह की,, करें हम नमन ।
सकुचाई उषा सिंदूरी ,नील है गगन ।।
अनंत अडिग सदियों से है , उनमुक्त गगन ।
सारे सुख दुख सुबह संध्या को, करें वो दफन ।
प्रकृति के उत्थान- पतन में, संग खड़ा है ।
करके राज अनगिनत वरण, किए सब हवन ।
सकुचाई उषा सिंदूरी,,,नील है गगन ।।
सप्तरथ आरूढ़ उतरता, रवि नित्य गगन ।
अभ्र भी आलोकित करते , पंछी विचरण ।
ऋचा गूँजे, भोर का हुआ, शुभ्र आगमन ।
ऋषि मुनि कर जोर दिन प्रतिदिन, करते वंदन ।
सकुचाई उषा सिंदूरी,, नील है गगन ।।
चमके अस॓ख्य , वितान पर,जब तारागण ।
ज्यों अनगिन जड़े हो हीरे,सुशोभित गगन।
इन्द्र संग अप्सराएँ भी, करती विचरण ।
हुई शुभ्र चांदनी में, निशा से मिलन ..।
स्वर्ण रूप इस मार्तण्ड का, बिखेरे किरण ।
कन्हैया के पीताम्बर सा, रंग गया मन ।
सुघर सांझ जब मन हेरती, दमके आनन ।
उतर धरती पर ढ़ूढ़ रहा ,नभ आलंबन ।
सिन्दूरी उषा सकुचाई , नील है गगन ।।
श्यामल रूप लगे सलोना , छाए जब घन
नभ पर सुरधनु ,सप्तर॓गी , लगे सुहावन ।
गूँजे राग अनुराग हृदय , बूंद गिरे छम।।
नित्य करते शीश शिखर के,तब आलिंगन
सकुचाई उषा सिंन्दूरी, नील है गगन ।
नेह की छतरी ताने नभ, करें हम नमन ।।
उषा झा
No comments:
Post a Comment