विषय :- विरह गीत
रस :- श्रृंगार ( वियोग )
छंद/बहर :- विजात छंद
भरा आंगन, जिया रोता
हृदय प्रीतम बसा होता
मलय अब प्राण दहकाये
पिया की याद तड़पाये
सभी से चुप लगा देता
नहीं खत में बता देता
विरह का बीज ही बोता
भरा आंगन, जिया रोता
सजा कर रूप मत वाला
रहा फिर भी बदन काला
सभी से पीर बस पाऊँ
पिया तुम बिन न मर जाऊँ
सजन अब सेज ना सोता
भरा आंगन, जिया रोता ।।
खनकती चूड़िया देखो
बजे शहनाइयाँ देखो
जले हैं तन बदन देखो
लगी है मन में अगन देखो ।
तमस में मारती गोता ।
भरा आंगन,जिया रोता।।
बिना साथी तरस जाता
अकेले कौन जी पाता
सजन अब बोझ ये जीवन
तुम्हीं को ढूंढता है मन
गगन पर मन धरा होता ।
भरा आंगन, जिया रोता ।।
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