सारिका का घर बन रहा था , नित्य मिस्री और मजदूरों के लिए
चाय बिस्किट सुबह शाम बड़े केटली में बना लाती ।सबको बड़े कप में चाय पिलाती , खुद भी अपनी कप भर लाती ।चाय
पीते पीते मीठी - मीठी बातें करती , मजदूरों के दुख सुख भी पूछ लिया करती ।
मिस्री और मजदूर खुश होते और मन से घर के डिजाइन
पीलर , आर्च खुद एक से बढ़कर एक डिजाइन बनाते । सारिका मन ही मन फूली न समाती ।
उसे पता था ये मजदूर प्रेम और स्नेह के भूखे होते ।इनसे मीठी बातें कर वो घर मनपसंद तरीके से बनवा रही थी ।
घर का काम सम्पन्न हो चुका था ।मिस्री मजदूर का काम समाप्त हो चुका था ।
देखते देखते खूबसूरत घर तैयार हो गया ।मिस्रियों ने बहुत मनोयोग से गृह निर्माण किया था ।सारिका की नाक ऊँची
होने लगी ।सुन्दर सुरूचिपूर्ण घर बनने के बाद धीरे धीरे उसको अहंकार होने लगा ।
एक दिन मिस्री आया अपना हिसाब करने ।धीरे धीरे वो घर के दहलीज तक आ गया , और मुग्ध होकर घर निहार रहा था ।
इतने में सारिका आ गई , एकाएक चिल्ला पड़ी । कहने लगी, अरे दहलीज तक कैसे तुम आ गयि । कुछ कहना था , तो आवाज लगाता ।
मिस्री रामु बेहद गमगीन होकर बोला , मालकिन हम मिस्री के मेहनत और कारीगरी ही इक दिन ईंट गारे से महल बन जाते ।जिस हाथों की कलाकृति की भूरी भूरी प्रशंसा होती ,उन मिस्री मजदूर को उसे निहारने तक की इजाजत भी नहीं ।
माफ कर दीजिए मालिक मैं अपना औकात भूल गया था...।
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