शहर की चका चौंध भायी, गाँव को छोड़ गए सारे ।
ऐश में गेह भूल जाते ,मातु पितु पंथ बस निहारे।।
जहाँ ने घाव दिया गहरा,उसे कण कण को तरसाया ।
दुखी वह रोटी कपड़ा से, मिली ठोकर घर को आया ।।
मलिन मुख आँख धँसी उनकी ,चेहरे बन गए छुहारे ।
शहर की चका चौंध भायी , गाँव को छोड़ गए सारे ।।
जिन्दगी भीख माँग कटती, आपदा लील गई खुशियाँ ।
रोग परिणाम भयावह है, हुई गम में घायल दुनिया।।
विकल बेमोल जिन्दगी है, झरे नैन से नित्य धारे ।
ऐश में गेह भूल जाते , मातु पितु पंथ बस निहारे ।।
घड़ी मनहूस जगत आई, छीन कर साँस दिल दुखाते ।
क्षुब्ध मन आशंकित रहता , डोर अपनों से छुट जाते।।
फँसे जब लोग आपदा में , छा रहे नैन अंधियारे ।।
शहर की चका चौंध भायी , गाँव को छोड़ गए सारे ।।
विवश एकांत वास को जग, हर्ष अरु विषाद वो भूले ।
मौन स्तब्ध जिन्दगी ठहरी , नहीं वो सावन के झूले ।
आह आई न जगत में इस, बार वो मृदुल सी बहारे।
ऐश में गाँव भूल जाते , मातु पितु पंथ बस निहारे ।।
खत्म प्रभु अब ये दौर करो,आस के बीज धरा बो दो
रोग महामारी से आतप मन, रोग बीज को ईश रों दो ।
द्वार पर अतिथि सत्कार हो,प्रेम से नित चरण पखारें
ऐश में गाँव भूल जाते , मातु पितु पंथ बस निहारे ।।
प्रो उषा झा देणु
देहरादून
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