जन्म मृत्यु सृष्टि की पहेली
नित्य प्रस्फुटित नव अंकुर
पर्ण पादप पुष्प कुम्हलाये,
है रीति प्रकृति कीअलबेली ।।
जो है कल वो नहीं मिले
वो जो चले गए क्या फिर,
आएँगें इसी सर जमीं पर ।।
जीवन के इस आपाधापी में
भूल जाते हैं एक दिन हमें
छोड़ चले जाना इस जग को,
दूर बहुत दूर,क्षितिज के पार ।।
जहाँ एक नई दुनिया,नये चेहरे,
नये रिश्ते निभाने होंगे और
छूट जाएगें फिर सब कुछ अधूरे ।।
जीवन चक्र यूँ ही चलता रहेगा
सृष्टि के खत्म होने तक ये खेल
हमेशा ही दुहराया जाता रहेगा ,
माया मोह के बंधन से होके मुक्त
कुछ अनुठे कर्म करने वाले ही
याद किए जाएंगे सदियों तक
होंगें नाम उनके हर इक जुबां पर ।।
No comments:
Post a Comment