Friday 15 December 2017

पहचान

खुले आसमां में
 उँचे उँचे कुलाँचे
 भरकर उड़ना
चाहती है हर औरत ..
इच्छाशक्ति से वोअपने
पंखों को परवाज दे..
मंजिलों को हासिल कर
 नभ में स्वच्छंद विचरती ..
सारे फर्जो को अंजाम
 देकर जग में सुंदर
 अपना मकां बनाती ..
 अपनी काबिलियत
 का झंडा गाड़ सबके
 बीच अपनी उपस्थिति
 का लोहा मनवाती
पर एक दिन स्वयं वो
 अपने पर को कुतरने लगती ..
बच्चों के परवरिश में
इतना खो जाती,
कि घर परिवार के इर्द गिर्द
 ही सिमट कर रह जाती ..
अपने ही बनाए दुनिया की
धूरी में घुमती रहती ..
 बेपनाह खुशियाँ उसे
घर संसार में ही मिलता
हर औरत को बच्चे परिवार से
अधिक खुशियाँ किसी
 चीज में न मिलता ..
अपने ही बनाए पिंजरे में फँस कर
 नभ में उड़ना ही भूल ही जाती ...
जब रह जाती अकेली तो
उड़ने के लिए पंख ज्यों ही फैलाती
जमीन पर गिर जाती ..
 खुद पर अफसोस करती
परवाज भरने को तरसती रहती ...
हर एक औरत से है मेरी ये मिन्नत
अपने पंखों को कभी न कुतरे
खुद की पहचान मिटने न दें ..

 

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