Monday 15 October 2018

इल्जाम (गजल)

के रदीफ़- होने तक
काफ़िया - आम

इन्तजार में उनके बैठी रही शाम होने तक
 निभाया न वो वादा किस्सा तमाम होने तक

दिल से खेलने की बाजीगरी भी एक कला है
कातिल अदा पता न चलता नाकाम होने तक    

किसी पे हँसते हँसते आशिक होते हैं कुर्बान
लुटा देते मुहब्बत में खुद ही बदनाम होने तक

प्यार  जिसने भी किया नहीं करते हैं अविश्वास
फूल मिले या काँटे परवाह नहीं अंजाम होने तक

किस्मत का लिखा कहाँ मिटाया जा सकता है
दर्द मिले या सुकून फना होते पैमान होने तक

किस्त दर किस्त चुका दिया एहसास की कीमत
बिखर के रह गया रूह इश्क के सरेआम होने तक

सच चाहे जो भी हो हकीकत यही वो हम संग नहीं
मेरी दुनिया ही टूट कर बिखर गई गुमनाम होने तक

जाने कब किस पे दिल आ जाए इश्क होता है मजबूर
रोके न रूके दिल उन पे हार ही जाता इल्जाम होने तक

दिल बड़ी सस्ती चीज है साहेब टुटे खिलौने छोड़ जाते
बड़ी बेरहमी से इसे कुचल देते हैं कत्लेआम होने तक

 

उषा झा (स्वरचित)
उत्तराखंड (देहरादून)

No comments:

Post a Comment