खेत खलिहान हँसते रहे
लहलहाती रहे धरा
खिले रहे बाग बगीचा
कहे पुकार के वसुन्धरा ..
करो न सृष्टि का सत्यानाश
करो न उजाड़ वन उपवन
बन जाएगी ये धरती बंजर
वृक्षों का न करो कटान...
माँ समान होती धरती
जो भर देती सभी के पेट
हरी भरी न हो धरा तो
जड़ चेतन हो जाएँगें नष्ट ..
न उमड़ेंगे घुमड़ेंगे बादल
होगी न फिर बरसात
बिन हरीतिमा के धरती
जैसे उजड़े चमन प्रकृति
बर्फ बिन होंगे सारे सूने पहाड़
खत्म हो जाएँगी सृष्टि के सौन्दर्य
न ही किसी को शुद्ध हवा मिलेगी
न रहेगी किसी की काया निरोगी
महरूम हो जाएँगे हम कन्दमूल
फल, सब्जियों व औषधियों से
अक्रान्त धरा करेगी करूण क्रन्दण
विकृत अंजाम जलवायु परिवर्तन से...
जागो मानव आओ मिलकर
प्राकृतिक संपदा की रक्षा करें
हर ओर वृक्ष लगा कर
इस धरती का श्रृंगार करें ...
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