बचपन में खेले जिस आंगन
जिसकी धूल बने थे चंदन
उस मिट्टी पर पड़ते ही चरण
शीश झुका, भावुक हो गया मन
छूके उन्हें फिर करने लगी वंदन ...
आंगन दलान यूँ ही है विद्यमान
बाग- बगीचे ,तालाब व मकान
सब होके भी लगता है खालीपन
जिनसे थे हम बंधे उन्हें ढूंढ रहें हैं नयन
नहीं हैं वो जिनपर करते थे अभिमान ...
दरवाजे से मीलों हरी भरी खेतों का दिखना
दलान के कुएँ में महिलाओं का पानी भरना
फूलों भरी डाली लिए लोगों का मंदिर जाना
पापा और ताऊजी का वो वार्तालाप गहन
जीवन्त हो उठा फिर दर्द की लहर छीन ली चैन
दादा जी के पूजा को बागों से फूल चुनना
मंदिर में पहले दीये दिखाने की होड़ लगाना
अमिया के बगीचे में सखियों संग खेलना
अब तलक जिंदा है जेहन में वो यादें सघन
भूल न पाई पगडंडियों में सहेलियाँ संग चलना ..
मंदिर में बजती है घंटियाँ होती है पूजन
पूजारी बदलते गए बीते कई सालों में
छप्पन भोग अब भी लगता परंपरा है अक्षुण
पर नहीं रहे अब वो गाने वाले झूलन
स्मृतियाँ शेष है मिट गए उनके निशान ...
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