Saturday 8 December 2018

लालच

विधा-दोहे

मिटती कब लालची को,  दौलत की है भूख
संदुक भर न हवस मिटे , बदल न पाते रूख

मानवता न शेष बची,  लोभ है  बेहिसाब
अब न अपनापन जग में,  रिश्ता ना नायाब

रिश्तों  से  बढ़कर  उसे,  दौलत  की  है  चाह
धन के नशा में होते ,   सबसे   बेपरवाह

धन की आकांक्षा किया , संबंध को तार तार
अपने मतलब का सभी ,  कोई  है अब यार

पग पग दिखे लूटेरा , किस पे करें विश्वास
बेच कर ईमान अपना , बनाया महल निवास

पेट पर दीन दुखी के , लोभी  मारे  लात
हक उसका छीन कर वो, दिखा रहे हैं जात

स्वार्थ में होकर अंधा , उल्लू तुम ना साध
जवाब देना प्रभु को !, कांधे पाप न लाध

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