विधा-दोहे
मिटती कब लालची को, दौलत की है भूख
संदुक भर न हवस मिटे , बदल न पाते रूख
मानवता न शेष बची, लोभ है बेहिसाब
अब न अपनापन जग में, रिश्ता ना नायाब
रिश्तों से बढ़कर उसे, दौलत की है चाह
धन के नशा में होते , सबसे बेपरवाह
धन की आकांक्षा किया , संबंध को तार तार
अपने मतलब का सभी , कोई है अब यार
पग पग दिखे लूटेरा , किस पे करें विश्वास
बेच कर ईमान अपना , बनाया महल निवास
पेट पर दीन दुखी के , लोभी मारे लात
हक उसका छीन कर वो, दिखा रहे हैं जात
स्वार्थ में होकर अंधा , उल्लू तुम ना साध
जवाब देना प्रभु को !, कांधे पाप न लाध
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