विधा- कविता
दरवाजे पे लगाए आँखे टकटकी
आहट न आई किसी के आने की
टूटी चारपाई पर पड़े वो गीले में
नब्ज चल रही बस जी रहे आस में
छोड़ गए संतान पड़ोसी के भरोसे
वृद्ध माँ पिता की साँसे हैं अटकी
मोह न छुट रहा सूत को देखने की
उम्मीद थी कोमल कोंपल खिलेंगे
उन्नत पौध छाया दार वृक्ष बनेंगे
लगेंगे साख पे फल फूल विश्वास के
मजबूत दरख्त बन सहारा देंगे उन्हें
की थी हिफाजत दुष्ट कपटियों से
दी थी जिन्हें परवरिश बेहतरीन
आज वो ही कर गए मुख मलीन
ये दुनियाँ है सिर्फ मतलब का
बदल गया अब रंग ज़माने का
शर्म लिहाज न अब किसी का
जो थे उनके टुकड़े कलेजे के
वो दुबके पल्लू में आसक्ति के
खिलाए निवाले अपने हिस्से के
भूले उन्हें ,दंश दिए अकेलेपन के
हिसाब लगाते माँ के ममत्व के
किसे मिले प्यार दुलार अधिक
नाप तौल रहे हैं प्यार पिता के
माता पिता बँट गए हैं बच्चो में
बारी आई जब उनकी सेवा की
निकल गए सभी पिछली गली
परवरिश को संतान गाली देके
था अभिमान उनके संस्कार पे
धोखा दे चले गए आने को कहके
देखा न संतान को जाने कब से
पल्ला झाड़ बुजुर्ग माता पिता से
औलाद मस्त अपने ही कुनबे में
यही तस्वीर आज आधुनिकता की
फर्ज से दूर हैं,चाहिए हक बराबरी की
उषा झा (स्वरचित)
उत्तराखंड़(देहरादून)
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