देश के नव निर्माण का
मजदूर ही है कर्णधार
बहाता नित्य ही वो स्वेद
बदले में मिलते न उपहार
बने न विकास के हकदार ।
सिर पर कफन बाँधकर
दो जून की रोटी खातिर
जान पर रोज ही खेलता
दो चार रूपये कमाकर
मजदूर परिवार पालता ।
बंजर भूमि में सोना उगाता
श्रमजीवी मानते न कभी हार
खेत फले फूले देख,खिल जाता
पर मनों टन अन्न उजाकर
अपना क्षुधा न मिटा पाता ।
निर्जन वन को बसाकर
चमन बना देता मजदूर ।
सागर के दिशा बदलता,
दुर्गम पथ सुगम बनाता
परिश्रम से मुँह न मोड़ता ।
उँची बहुमंजिली मिनार
बनाके, सोता फूटपाथ पर
सुंदर जहां बनाके दुख सहता ।
जीवन की विसंगतियों को
सह लेता है वो मुस्कुराकर ।
मिले हर श्रमजीवी को
परिश्रम का उचित मूल्य,
अन्न वस्त्र व सिर पे छत हो
तरसे न वो खुशियों को
हर दिन मजदूर दिवस हो ..।
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