विधा- मुक्तक
जग कलियों को क्यों रौंद रहा? दुष्टों की क्या रज़ा हुई?
खिलने से पहले मुरझाती, कली बनी तो सजा हुई ।
सोच मनुज, कलियाँ बिन उपवन, कै से फिर पुष्पित होंगे?
सींच नेह से, लो सब कलियाँ ,बनी पुष्प तब लजा गई ।
खिलने से प्रथम, कली कोई, नहीं कभी भी कुम्हलाये ।
कुत्सित, दुष्ट आँख से उसको , कोई डरा नहीं पाये ।
तितली सी निर्भीक बाग में , घूमे वह डाली डाली ।
गुलशन में पुष्पित पुहुप रहें, ये दृग को तभी सुहाये ।
वसुधा हो तब हर्षित तनुजा , अब नहीं सहे प्रताड़ना ।
घर -घर में मुस्काये लाड़ो ,न कभी सहे अवमानना ।
रंग बिखेरे, खुशियों के, वो , पंख गगन में फैलाये ।
आनन दीप्त,गेह आलोकित , यह सूचित रहे भावना
हृदय से नेह-कोंपल फूटे, जब देते लाड़ सुता को ।
प्रदीप्त करते हम बचपन को,खत्म करें उस जड़ता को ।
निखरे कुन्दन सी कलियाँ भी, यज्ञ सफल हो जीवन का ।
बुझने ज्वाला कभी न पाये ,क्षति नहीं पहुँचे स्मिता को।।
हँसती झरने सी रहे सुता ,खुशियाँ हों सब कदमों में ।
जीवन भर हो नहीं कभी भी, बिटिया मेरी सदमें में ।।
कुसमित करती जो बसुधा को,क्यों फिर वह कुचली जाती ?
मंजूर नहीं बंधन उसको, जीना कभी न परदों में ।।
उषा झा देहरादून