Tuesday 31 December 2019

कुम्हलाये नहीं कलियाँ

विधा- मुक्तक

 जग कलियों को क्यों रौंद रहा? दुष्टों की क्या रज़ा हुई? 
खिलने से पहले मुरझाती,  कली बनी तो सजा हुई ।
सोच मनुज, कलियाँ बिन उपवन, कै से फिर पुष्पित होंगे?
सींच नेह से, लो सब कलियाँ ,बनी पुष्प तब लजा गई  ।

खिलने से प्रथम, कली कोई, नहीं कभी भी कुम्हलाये ।
कुत्सित, दुष्ट आँख से उसको , कोई डरा नहीं पाये ।
तितली सी निर्भीक बाग में , घूमे वह डाली डाली ।
गुलशन में पुष्पित पुहुप रहें, ये दृग को तभी सुहाये ।

वसुधा हो तब हर्षित तनुजा , अब नहीं सहे प्रताड़ना ।
घर -घर में मुस्काये लाड़ो ,न कभी सहे अवमानना ।
रंग बिखेरे, खुशियों के, वो , पंख गगन में फैलाये ।
आनन दीप्त,गेह आलोकित , यह सूचित रहे भावना

हृदय से नेह-कोंपल फूटे, जब देते लाड़ सुता को ।
 प्रदीप्त करते हम बचपन को,खत्म करें उस जड़ता को ।
निखरे कुन्दन सी कलियाँ भी, यज्ञ सफल हो जीवन का ।
बुझने ज्वाला कभी न  पाये ,क्षति नहीं पहुँचे स्मिता को।।

हँसती झरने सी रहे सुता ,खुशियाँ हों सब कदमों में ।
जीवन भर हो नहीं कभी भी, बिटिया मेरी सदमें में ।।
कुसमित करती जो बसुधा को,क्यों फिर वह कुचली   जाती ?
 मंजूर नहीं  बंधन उसको, जीना कभी न परदों में ।।


उषा झा देहरादून

Sunday 29 December 2019

नेह से भरा गगन

विधा - गीत 
         
नभ छतरी ताने नेह की,, करें हम नमन ।
 सकुचाई उषा सिंदूरी ,नील है गगन ।।

अनंत अडिग सदियों से है , उनमुक्त गगन ।
सारे सुख दुख सुबह संध्या को, करें वो दफन ।
प्रकृति के उत्थान- पतन में, संग खड़ा है ।
करके राज अनगिनत वरण, किए सब हवन ।
सकुचाई उषा सिंदूरी,,,नील है गगन ।।

सप्तरथ आरूढ़  उतरता, रवि नित्य गगन ।
अभ्र भी आलोकित करते , पंछी विचरण ।
 ऋचा गूँजे, भोर का हुआ, शुभ्र आगमन ।
ऋषि मुनि कर जोर दिन प्रतिदिन, करते वंदन ।
सकुचाई उषा सिंदूरी,, नील है गगन ।।

चमके अस॓ख्य , वितान पर,जब तारागण ।
ज्यों अनगिन जड़े हो हीरे,सुशोभित गगन। 
इन्द्र संग अप्सराएँ भी,  करती विचरण ।
हुई शुभ्र चांदनी में,  निशा से मिलन ..।

स्वर्ण रूप इस मार्तण्ड का, बिखेरे किरण ।
कन्हैया  के पीताम्बर सा, रंग गया मन ।
सुघर सांझ जब मन हेरती, दमके आनन ।
उतर धरती पर ढ़ूढ़ रहा  ,नभ आलंबन ।
सिन्दूरी उषा सकुचाई ,  नील है गगन  ।।

श्यामल रूप लगे सलोना ,  छाए जब घन  
नभ पर सुरधनु ,सप्तर॓गी , लगे सुहावन ।
गूँजे राग अनुराग हृदय ,  बूंद गिरे छम।।
नित्य करते शीश शिखर के,तब आलिंगन 
सकुचाई उषा सिंन्दूरी,  नील है गगन  ।

नेह की छतरी ताने नभ, करें हम नमन ।।

उषा झा 

Wednesday 25 December 2019

ढल रहा सूरज वक्त का

 
विधा- गीत 
अनगिनत यादें छोड़ कर,सूरज ढल रहा वक्त का।
लम्हे लम्हे जी कर भी, दिल में चाह उसी पल का ।

हरी भरी पल्लवित विटप ,इठला सुरभित पुहुप रहा ।
नाचता मोर कानन में , यौवन बरसा नेह रहा । 
पतझड आ गया, विजन वन,,बदला पहिया वक्त का ।।
अनगिनत यादें छोड़ कर ,सूरज ढल रहा वक्त का ।।

छिप जाता रवि वादा लेकर गगन में कल फिर चमकना ।
सत्य ! उदय के बाद अस्त , मन में नव उमंग भरना ।।
निर्मम बढ़ रहा वक्त है,मधुरिम पल छिन हम सबका ।
लम्हे लम्हे जी कर भी , दिल में चाह उसी पल का ।।

नहीं लौटता वक्त कभी , कर्म मनुज पुनीत कर लो ।
रह जाएँगे बस यादें ,, अपने कुछ फर्ज निभा लो ।।
उम्र चुरा कर चुपके से , बदलता जीवन जाय़का ।।
लम्हें लम्हें जी कर भी , दिल में चाह उसी पल का ।।

 यादों की गठरी बाँध वर्ष, फिर जीवन के बदल रहे ।
तीखे- मीठे क्षण मुट्ठी से ,देखो सबके फिसल रहे ।।
आने वाले कल हो मधुरिम, दूर रहे तम जीवन का ।
अनगिनत यादें छोड़ कर,सूरज ढल रहा वक्त का ।।

लम्हे लम्हे जी कर भी, दिल में चाह उसी पल का ।।

उषा झा स्वरचित 
देहरादून उत्तराखंड

कुक्षी में नव तन

विधा- लावणी मात्रिक छंद ( 16/12अंत गुरू से)
आधारित गीत

 शिशु आगमन से हर्षित धरा,खिले जोश फिर यौवन का। सिलसिला एक चलता रहता , मानव के जन्म  मृत्यु का।।

 महका महका मन था सबका, तन नया कुक्षी में आया।
मन मुस्कुराया शिशु जन्म से, रो कर धरती पर आया ।।
मिले स्त्री पुरुष जब खिले फूल, नन्हीं जां से जग महका।
सिलसिला एक चलता रहता, मानव के जन्म मृत्यु का।।

कर्म अनोखा मनुज करे जब, गौरव गीत सभी गाते ।
त्याग बलिदान की गाथा मनु, युगों तलक गुनगुनाते ।।
सूनसान जगत खिलखिलाया, हुआ अवतरण मानव का ।
सिलसिला एक चलता रहता, मानव के जन्म मृत्यु का ।।

 राग द्वेष से हटकर बचपन, रंग जवानी के कितने ।
मोह बुढ़ापे में भंग हुआ,  बदले गिरगिट से अपने ।।
अंतहीन सिलसिला दुखों का , जीवन चक्र यही जग का ।
शिशु आगमन से हर्षित धरा,खिले जोश फिर यौवन का ।

व्यर्थ राग में रत जीवन है, रिश्ते- सारे मतलब के ।
जिसके सुख की खातिर नर,गठरी बाँधे थे छल के ।।
बने बोझ अब उसी पूत पर , नहीं नीर रूके दृग का ।।
सिलसिला एक चलता रहता,  मानव के जन्म मृत्यु का ।
उषा झा


पुष्प की पीड़ा

विधा- गीत
ताटंक छंद 16/14
खिली कली जब,मुग्ध नयन सब ,गुलशन की शोभा न्यारी
उन्मादित भौंरा करता तब, रस चखने की तैयारी ।।

अध खिले पुष्प, पथ में बिखरे,क्यों कुचल दिए है पैरों ।
 चकृत जिन्दगी व्यथित हृदय है, फेंक गए पथ में गैरों ।
 जब महका करती बागों में  ,भरी नेह  दृग में भारी ।खिली कली जब मुग्ध नयन सब,गुलशन की शोभा न्यारी ....।।

किस्मत उसका ही चमका है ,मिले  श्री चरण का डेरा।
फिर रूप ढ़ला अब पूछ नहीं, क्यों मुखड़ा सबने फेरा ।।
बीच राह सबने कुचल दिया, अब पीर हृदय में भारी ।
 खिली कली जब मुग्ध नयन, गुलशन की शोभा न्यारी ।।

यौवन का जब ही संग रहे , कितने रहते दीवाने ।
भँवरे मदहोश बावरे बने  , खुशबू के वो दीवाने ।
जब मुरझा गई हुई तृष्कृत , पर अब नहीं रहीं प्यारी ।
 खिली कली जब मुग्ध नयन सब, गुलशन की शोभा न्यारी ।

किस्मत से ही हरि चरण मिले,कृपा करे तब शीश चढ़े ।
पुनीत कर्म किसी जन्मों का ,प्रीत भरे हरि  हृदय पढ़े ।
शत जीवन तन अब नहीं धरे , सुन विनती श्याम हमारी ।
खिली कली जब मुग्ध नयन सब , गुलशन की शोभा न्यारी ।
उन्मादित भौंरा करता तब , रस चखने की तैयारी ।।

उषा झा 

अरुणिम अभ्र


विधा गीत

नभ का आनन दहक रहा है  ।
रम्य रूप पा चमक रहा है ।।

रश्मि रथी से दिप्त दिशाएँ ।
वृक्ष लता नव जीवन पाएँ ।।
अरुण उषा मिलन मनोहारी ।
देख कुलाँचे हिरनी मारी।।
खग पशु हर्षित चहक रहा है ।
नभ का आनन दहक रहा है ।

ज्योति पूँज जब किरणें लाई ।
पाखी गगन में चहचहाई ।।
सुषुप्त महि जब कुसमित हुई ।
 तितली फूलों पर मड़राई ।।
भृंग बाग में बहक रहा है ।
नभ का आनन दहक रहा है ।।

ले रहा जग  प्रेम अंगड़ाई ।
प्रेयसी दिल से गुनगुनाई  ।।
नूतन कोपल यूँ हृदय खिले ।
राजीव नयन ख्वाहिशें पले ।
पग सजनी का थिरक रहा है
नभ का आनन दहक रहा है ।

आलोकित नभ जग मुस्काए ।
अरुणिम अभ्र झूमे लताएँ ।।
सजनी यादों में खो जाती ।
सरित उमंग में  गुनगुनाती ।।
जग ऊर्जा पा दमक रहा है ।।
रम्य रूप पा चमक रहा है ।
नभ का आनन दहक रहा है ।।

*प्रो उषा झा रेणु* 

Thursday 19 December 2019

ऋतु की मार

भीषण सर्दी शिखर पर, जीवन है बेहाल ।
पारा उत्तराखंड की ,,रोको बनकर ढाल ।।

छुपा दुबक कर भानु है, डरा गगन का भूप ।
सर्दी में तन ठिठुरता,  बेजान हुआ धूप ।।

प्रकोप सर्दी की बढ़ी , काँप रहे हैं गात ।
ओस वृक्ष पर छा गया, ढ़के सभी हैं पात  ।।

धनिक रजाई में छुपा , चबा रहा बादाम ।
दीन रबड़ी को तरसे,   दे दो  दाता राम ।।

सीत लहर में भी कृषक, बो रहा स्वप्न बीज  ।
चैन नहीं उसको कभी, नहीं किसी पर खीज ।।

द्वार खड़े जबसे शिशिर,  शीतल हुआ समीर ।
एक समान साँझ सुबह , खग वृन्द भी अधीर।।

ऋतु की मार दीन पर पड़े, बर्फ पड़ी है  घैल  ।
किसान भीषण ठंड़ में , काँधे पे हल बैल ।

दुबक गए दिनकर कहाँ, रही कुहासा मार ।
ठिठुर रहा तन ठंड से, मनवा है बेजार ।।

कातर नैना भोर से , हों कैसे अब  स्नान  ।
 मंदिर भी बासी रहे, मुश्किल  पूजन ध्यान ।।

 
 उषा झा स्वरचित

Sunday 8 December 2019

हर परिस्थिति में अनुकूल बबूल


हर परिस्थिति में अनुकूल , रहो तुम, बबूल सिखाते ।
पूछ रूप की, दो दिन की, गुण उत्तम हमें बताते ।।

काँटे चुभते हैं तन में, दर्द सदा सहते जाते ।
जब अपने दें, दंश सदा,मुश्किल से ही सह पाते ।

 दुकडे टुकड़े जब दिल हो, निहारो वृक्ष बबूल को ।
छाया लुटाता नेह की,,वह मरु में सदा पथिक को ।

कंटकों के बीच बबूल,,,हर वक्त ही मुस्कुराते
हर परिस्थिति....

कुछ लोग कहे बबूल पर, भूत हमेशा ही रहते ।
कुछ कहते यह  देव वृक्ष,श्री हरि जी निवास करते ।

खुद में मस्त बिन परवाह,,रेगिस्तान में झूमता ।
वो हर ऋतु का स्वागत  कर..फल, पीत  पुष्प बिखेरता ।

फल फूल छाल डाल सभी,,काम औषधी में आते ।
पूछ रूप की दो .....

सुख -दुख है, आँख मिचौली ,हार न मान विसंगति से ।
जमीं कहीं कैसी भी हो,,रहो नीर बिन बबूल से ।।

देते दुष्ट घाव हिय को,,करे शूल से तन रक्षा ।
क्रोध पर रख लो नियंत्रण , सिखाते यही सार सदा ।

है शांति में सुखी कीकर, जीवन की कला सिखाते 
हर परिस्थिति...

जो भी उपहास उड़ाते , स्वार्थ के वशीभूत सभी ।
अब लोग मतलब से रखें,, केवल रिश्ते आज सभी

बबूल बोने वाले की, लोग जो खिल्ली उड़ाते ।
पट्टी खुलती आखों की ,औषधि जब उसमें पाते।
अंग अंग देकर सबको,,,खुद मिटा परमार्थ जाते ।

हर परिस्थिति में अनुकूल,रहो ये बबूल सिखाते ।
पूछ रूप की दो दिन का,, गुण उत्तम हमें बताते।

उषा झा (स्वरचित)
देहरादून(उत्तराखंड़)

Monday 2 December 2019

दिल को है अमर्ष

विधा - सरसी छंद आधारित # गीत 
16/11
  
खिली कली कुसमित देख धरा, दुष्ट हिय नहीं हर्ष ।
देख दशा नारी धरती की ,उपजे हृदय अमर्ष ।

शृंगार जगत का करे धरा ,नारी से परिवार ।
वृक्ष काट हरियाली हरते,नारी बीच बजार।।
हर दिल में मक्कारी हो जब ,कौन सुने तब पीर।
है छल कपट का बोल बाला,बचा नहीं मन धीर ।।
गया वक्त नारी धरती का ,कहाँ हुआ उत्कर्ष ।
देख दशा नारी धरती की, उपजे हृदय अमर्ष ।।

नुँची कली धृतराष्ट्र देखते,मिटे पेट में भ्रूण ।
बाँध नयन के टूट गए अब , खौल रहा अब खून ।।
शुष्क धरा बरसे नही बदरा,,जल बिन तरसे खेत 
 पीट रहा निज छाती किसान,कठिन वैशाख चैत ।।
चला कर अबला पर हुकूमत, निकले क्या निष्कर्ष?
खिली कली कुसमित देख धरा, दुष्ट हिय नहीं हर्ष ।।

नर को देख व्यथित हर नारी, गिरी अर्स से फर्श ।।
देख दशा नारी धरती की हृदय उपजे अमर्ष ।।

उषा झा 

Sunday 1 December 2019

सुगढ साझ मन हेरती

विषय - साँझ, संध्या, गोधूलि बेला
  विधा-  गीत (लावणी छंद )
मुखड़ा ...         
दिन भर जलना नियति, तप्त मन, अधिरता निगाहों में ।
अगन बुझाने छिप रहा भानु, निशा के पनाहों में ।

अंतरा ...
         1.
खग पशु मानव भी खोज रहे , एक छाँव प्रीति भरी ।
सुगढ़ साँझ मन हेरती आस, मधुर मिलन तृप्ति भरी ।

पंछी झुण्ड में लौटता, विटप गाय रंभा रही ।
गाता विभोर चरवाहा , रंग साँझ लुटा रही ।।

आशाओं के जब दीप जले, मन प्रिय के बाहों में ,
अगन बुझाने छिप रहा भानु ,निशा के पनाहों में ...।।
           2.
मासुम कली कुम्हला जाती, धूप तन मन जलाता ।
प्यासा पंछी दिन भर भटके, छाँव कहाँ बहलाता ।

लता वृन्द भी लुंज पुँज , नव किसलय मुर्छाया ।
मजदूर पस्त जलता तन , मन बहुत कुम्हलाया ।।

गोधूलि बेला हर्षित जीव , झूम रहे राहों में ,
अगन बुझाने छिप रहा भानु , निशा के पनाहों में ।
             3.
दूर कहीं मांझी जब गाता , हृदय भींग फिर जाता ।
फसल खेत में जब जल जाता, तड़प कृषक फिर जाता ।

थकती कोकिल कूक कूक , रुन्धित मन विरहण के ।
जाने अब किस देश मलय , सुषुप्त हृदय मनुज के ।

संध्या स्पर्श करे खिले हृदय , उत्सव मल्लाहों में ।
दिन भर जलना नियति, तप्त मन,अधिरता निगाहों में.. 
           4.
तम घिर गया, अस्त दिनकर , दीये मंदिर में जले ।
भजन गूँजते कानों में , उर भक्ति में खो चले ।।

झूलन मंदिर सब गाये , मन वृन्दावन घुमता ।
रास रंग में खोया जग , प्रिये संग उर खिलता ।।

चाँद तारे नभ जगमगाते, सित चाँदनी बाँहों में ।
दिन भर जलना नियति, तप्त मन , अधिरता निगाहों में ।

अगन बुझाने छिप रहा भानु , निशा के पनाहों में ।।
उषा झा