विधा - अरुण छंद
212 , 212 , 212 212
राम से, पूत जग, में नहीं अब मिले
भ्रात उन, सा कहाँ, इस धरा के तले ।
मान पितु, का रहे, वन गए हर्ष से।
राज को, तज दिए दूर पर क्षोभ से ।
मातु के, मोह तज, वन चले इक कुँवर ।
था महल, में करुण दृश्य आठो पहर ।।
हे भरत, बस करो , धीर अब माँ धरें।
राम के, मधु वचन, शोक सबके हरे ।।
त्याग में, सुख परम, मनु यही धर्म है।
हो प्रजा, बस सुखी, शुचि सही कर्म है
राम से प्रीति रख , जीव भव से तरा ।
मोह से थे परे , देव उतरे धरा । ।
अंजनी, सुत बली,राम के भक्त थे।
वीर के, शीश पर,प्रभु वरद हस्त थे।
उर बसे ,राम जब , छू न कोई सके ।
प्रेम उन, सा नही,चीर उर को सके।
संग प्रभु, कब हरा, कौन दानव सके ?
बाँध भी, तो नहीं , दैत्य वानर सके ।।
नाम जब, था पवन,बस गगन उड़ गए ।
जल गए, सब महल, देख के दुष्ट रह गए ।
राम के, दास बन , पीर सिय के सुने ।
देख सिय, मन विकल, स्वप्न उनके बुने।।
राम के, काज वो,दूत बन के किए।
इस धरा, फिर कहाँ,भक्त हनुमान हुए।
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देहरादून उत्तराखंड