Tuesday 31 December 2019

कुम्हलाये नहीं कलियाँ

विधा- मुक्तक

 जग कलियों को क्यों रौंद रहा? दुष्टों की क्या रज़ा हुई? 
खिलने से पहले मुरझाती,  कली बनी तो सजा हुई ।
सोच मनुज, कलियाँ बिन उपवन, कै से फिर पुष्पित होंगे?
सींच नेह से, लो सब कलियाँ ,बनी पुष्प तब लजा गई  ।

खिलने से प्रथम, कली कोई, नहीं कभी भी कुम्हलाये ।
कुत्सित, दुष्ट आँख से उसको , कोई डरा नहीं पाये ।
तितली सी निर्भीक बाग में , घूमे वह डाली डाली ।
गुलशन में पुष्पित पुहुप रहें, ये दृग को तभी सुहाये ।

वसुधा हो तब हर्षित तनुजा , अब नहीं सहे प्रताड़ना ।
घर -घर में मुस्काये लाड़ो ,न कभी सहे अवमानना ।
रंग बिखेरे, खुशियों के, वो , पंख गगन में फैलाये ।
आनन दीप्त,गेह आलोकित , यह सूचित रहे भावना

हृदय से नेह-कोंपल फूटे, जब देते लाड़ सुता को ।
 प्रदीप्त करते हम बचपन को,खत्म करें उस जड़ता को ।
निखरे कुन्दन सी कलियाँ भी, यज्ञ सफल हो जीवन का ।
बुझने ज्वाला कभी न  पाये ,क्षति नहीं पहुँचे स्मिता को।।

हँसती झरने सी रहे सुता ,खुशियाँ हों सब कदमों में ।
जीवन भर हो नहीं कभी भी, बिटिया मेरी सदमें में ।।
कुसमित करती जो बसुधा को,क्यों फिर वह कुचली   जाती ?
 मंजूर नहीं  बंधन उसको, जीना कभी न परदों में ।।


उषा झा देहरादून

Sunday 29 December 2019

नेह से भरा गगन

विधा - गीत 
         
नभ छतरी ताने नेह की,, करें हम नमन ।
 सकुचाई उषा सिंदूरी ,नील है गगन ।।

अनंत अडिग सदियों से है , उनमुक्त गगन ।
सारे सुख दुख सुबह संध्या को, करें वो दफन ।
प्रकृति के उत्थान- पतन में, संग खड़ा है ।
करके राज अनगिनत वरण, किए सब हवन ।
सकुचाई उषा सिंदूरी,,,नील है गगन ।।

सप्तरथ आरूढ़  उतरता, रवि नित्य गगन ।
अभ्र भी आलोकित करते , पंछी विचरण ।
 ऋचा गूँजे, भोर का हुआ, शुभ्र आगमन ।
ऋषि मुनि कर जोर दिन प्रतिदिन, करते वंदन ।
सकुचाई उषा सिंदूरी,, नील है गगन ।।

चमके अस॓ख्य , वितान पर,जब तारागण ।
ज्यों अनगिन जड़े हो हीरे,सुशोभित गगन। 
इन्द्र संग अप्सराएँ भी,  करती विचरण ।
हुई शुभ्र चांदनी में,  निशा से मिलन ..।

स्वर्ण रूप इस मार्तण्ड का, बिखेरे किरण ।
कन्हैया  के पीताम्बर सा, रंग गया मन ।
सुघर सांझ जब मन हेरती, दमके आनन ।
उतर धरती पर ढ़ूढ़ रहा  ,नभ आलंबन ।
सिन्दूरी उषा सकुचाई ,  नील है गगन  ।।

श्यामल रूप लगे सलोना ,  छाए जब घन  
नभ पर सुरधनु ,सप्तर॓गी , लगे सुहावन ।
गूँजे राग अनुराग हृदय ,  बूंद गिरे छम।।
नित्य करते शीश शिखर के,तब आलिंगन 
सकुचाई उषा सिंन्दूरी,  नील है गगन  ।

नेह की छतरी ताने नभ, करें हम नमन ।।

उषा झा 

Wednesday 25 December 2019

ढल रहा सूरज वक्त का

 
विधा- गीत 
अनगिनत यादें छोड़ कर,सूरज ढल रहा वक्त का।
लम्हे लम्हे जी कर भी, दिल में चाह उसी पल का ।

हरी भरी पल्लवित विटप ,इठला सुरभित पुहुप रहा ।
नाचता मोर कानन में , यौवन बरसा नेह रहा । 
पतझड आ गया, विजन वन,,बदला पहिया वक्त का ।।
अनगिनत यादें छोड़ कर ,सूरज ढल रहा वक्त का ।।

छिप जाता रवि वादा लेकर गगन में कल फिर चमकना ।
सत्य ! उदय के बाद अस्त , मन में नव उमंग भरना ।।
निर्मम बढ़ रहा वक्त है,मधुरिम पल छिन हम सबका ।
लम्हे लम्हे जी कर भी , दिल में चाह उसी पल का ।।

नहीं लौटता वक्त कभी , कर्म मनुज पुनीत कर लो ।
रह जाएँगे बस यादें ,, अपने कुछ फर्ज निभा लो ।।
उम्र चुरा कर चुपके से , बदलता जीवन जाय़का ।।
लम्हें लम्हें जी कर भी , दिल में चाह उसी पल का ।।

 यादों की गठरी बाँध वर्ष, फिर जीवन के बदल रहे ।
तीखे- मीठे क्षण मुट्ठी से ,देखो सबके फिसल रहे ।।
आने वाले कल हो मधुरिम, दूर रहे तम जीवन का ।
अनगिनत यादें छोड़ कर,सूरज ढल रहा वक्त का ।।

लम्हे लम्हे जी कर भी, दिल में चाह उसी पल का ।।

उषा झा स्वरचित 
देहरादून उत्तराखंड

कुक्षी में नव तन

विधा- लावणी मात्रिक छंद ( 16/12अंत गुरू से)
आधारित गीत

 शिशु आगमन से हर्षित धरा,खिले जोश फिर यौवन का। सिलसिला एक चलता रहता , मानव के जन्म  मृत्यु का।।

 महका महका मन था सबका, तन नया कुक्षी में आया।
मन मुस्कुराया शिशु जन्म से, रो कर धरती पर आया ।।
मिले स्त्री पुरुष जब खिले फूल, नन्हीं जां से जग महका।
सिलसिला एक चलता रहता, मानव के जन्म मृत्यु का।।

कर्म अनोखा मनुज करे जब, गौरव गीत सभी गाते ।
त्याग बलिदान की गाथा मनु, युगों तलक गुनगुनाते ।।
सूनसान जगत खिलखिलाया, हुआ अवतरण मानव का ।
सिलसिला एक चलता रहता, मानव के जन्म मृत्यु का ।।

 राग द्वेष से हटकर बचपन, रंग जवानी के कितने ।
मोह बुढ़ापे में भंग हुआ,  बदले गिरगिट से अपने ।।
अंतहीन सिलसिला दुखों का , जीवन चक्र यही जग का ।
शिशु आगमन से हर्षित धरा,खिले जोश फिर यौवन का ।

व्यर्थ राग में रत जीवन है, रिश्ते- सारे मतलब के ।
जिसके सुख की खातिर नर,गठरी बाँधे थे छल के ।।
बने बोझ अब उसी पूत पर , नहीं नीर रूके दृग का ।।
सिलसिला एक चलता रहता,  मानव के जन्म मृत्यु का ।
उषा झा


पुष्प की पीड़ा

विधा- गीत
ताटंक छंद 16/14
खिली कली जब,मुग्ध नयन सब ,गुलशन की शोभा न्यारी
उन्मादित भौंरा करता तब, रस चखने की तैयारी ।।

अध खिले पुष्प, पथ में बिखरे,क्यों कुचल दिए है पैरों ।
 चकृत जिन्दगी व्यथित हृदय है, फेंक गए पथ में गैरों ।
 जब महका करती बागों में  ,भरी नेह  दृग में भारी ।खिली कली जब मुग्ध नयन सब,गुलशन की शोभा न्यारी ....।।

किस्मत उसका ही चमका है ,मिले  श्री चरण का डेरा।
फिर रूप ढ़ला अब पूछ नहीं, क्यों मुखड़ा सबने फेरा ।।
बीच राह सबने कुचल दिया, अब पीर हृदय में भारी ।
 खिली कली जब मुग्ध नयन, गुलशन की शोभा न्यारी ।।

यौवन का जब ही संग रहे , कितने रहते दीवाने ।
भँवरे मदहोश बावरे बने  , खुशबू के वो दीवाने ।
जब मुरझा गई हुई तृष्कृत , पर अब नहीं रहीं प्यारी ।
 खिली कली जब मुग्ध नयन सब, गुलशन की शोभा न्यारी ।

किस्मत से ही हरि चरण मिले,कृपा करे तब शीश चढ़े ।
पुनीत कर्म किसी जन्मों का ,प्रीत भरे हरि  हृदय पढ़े ।
शत जीवन तन अब नहीं धरे , सुन विनती श्याम हमारी ।
खिली कली जब मुग्ध नयन सब , गुलशन की शोभा न्यारी ।
उन्मादित भौंरा करता तब , रस चखने की तैयारी ।।

उषा झा 

अरुणिम अभ्र


विधा गीत

नभ का आनन दहक रहा है  ।
रम्य रूप पा चमक रहा है ।।

रश्मि रथी से दिप्त दिशाएँ ।
वृक्ष लता नव जीवन पाएँ ।।
अरुण उषा मिलन मनोहारी ।
देख कुलाँचे हिरनी मारी।।
खग पशु हर्षित चहक रहा है ।
नभ का आनन दहक रहा है ।

ज्योति पूँज जब किरणें लाई ।
पाखी गगन में चहचहाई ।।
सुषुप्त महि जब कुसमित हुई ।
 तितली फूलों पर मड़राई ।।
भृंग बाग में बहक रहा है ।
नभ का आनन दहक रहा है ।।

ले रहा जग  प्रेम अंगड़ाई ।
प्रेयसी दिल से गुनगुनाई  ।।
नूतन कोपल यूँ हृदय खिले ।
राजीव नयन ख्वाहिशें पले ।
पग सजनी का थिरक रहा है
नभ का आनन दहक रहा है ।

आलोकित नभ जग मुस्काए ।
अरुणिम अभ्र झूमे लताएँ ।।
सजनी यादों में खो जाती ।
सरित उमंग में  गुनगुनाती ।।
जग ऊर्जा पा दमक रहा है ।।
रम्य रूप पा चमक रहा है ।
नभ का आनन दहक रहा है ।।

*प्रो उषा झा रेणु* 

Thursday 19 December 2019

ऋतु की मार

भीषण सर्दी शिखर पर, जीवन है बेहाल ।
पारा उत्तराखंड की ,,रोको बनकर ढाल ।।

छुपा दुबक कर भानु है, डरा गगन का भूप ।
सर्दी में तन ठिठुरता,  बेजान हुआ धूप ।।

प्रकोप सर्दी की बढ़ी , काँप रहे हैं गात ।
ओस वृक्ष पर छा गया, ढ़के सभी हैं पात  ।।

धनिक रजाई में छुपा , चबा रहा बादाम ।
दीन रबड़ी को तरसे,   दे दो  दाता राम ।।

सीत लहर में भी कृषक, बो रहा स्वप्न बीज  ।
चैन नहीं उसको कभी, नहीं किसी पर खीज ।।

द्वार खड़े जबसे शिशिर,  शीतल हुआ समीर ।
एक समान साँझ सुबह , खग वृन्द भी अधीर।।

ऋतु की मार दीन पर पड़े, बर्फ पड़ी है  घैल  ।
किसान भीषण ठंड़ में , काँधे पे हल बैल ।

दुबक गए दिनकर कहाँ, रही कुहासा मार ।
ठिठुर रहा तन ठंड से, मनवा है बेजार ।।

कातर नैना भोर से , हों कैसे अब  स्नान  ।
 मंदिर भी बासी रहे, मुश्किल  पूजन ध्यान ।।

 
 उषा झा स्वरचित

Sunday 8 December 2019

हर परिस्थिति में अनुकूल बबूल


हर परिस्थिति में अनुकूल , रहो तुम, बबूल सिखाते ।
पूछ रूप की, दो दिन की, गुण उत्तम हमें बताते ।।

काँटे चुभते हैं तन में, दर्द सदा सहते जाते ।
जब अपने दें, दंश सदा,मुश्किल से ही सह पाते ।

 दुकडे टुकड़े जब दिल हो, निहारो वृक्ष बबूल को ।
छाया लुटाता नेह की,,वह मरु में सदा पथिक को ।

कंटकों के बीच बबूल,,,हर वक्त ही मुस्कुराते
हर परिस्थिति....

कुछ लोग कहे बबूल पर, भूत हमेशा ही रहते ।
कुछ कहते यह  देव वृक्ष,श्री हरि जी निवास करते ।

खुद में मस्त बिन परवाह,,रेगिस्तान में झूमता ।
वो हर ऋतु का स्वागत  कर..फल, पीत  पुष्प बिखेरता ।

फल फूल छाल डाल सभी,,काम औषधी में आते ।
पूछ रूप की दो .....

सुख -दुख है, आँख मिचौली ,हार न मान विसंगति से ।
जमीं कहीं कैसी भी हो,,रहो नीर बिन बबूल से ।।

देते दुष्ट घाव हिय को,,करे शूल से तन रक्षा ।
क्रोध पर रख लो नियंत्रण , सिखाते यही सार सदा ।

है शांति में सुखी कीकर, जीवन की कला सिखाते 
हर परिस्थिति...

जो भी उपहास उड़ाते , स्वार्थ के वशीभूत सभी ।
अब लोग मतलब से रखें,, केवल रिश्ते आज सभी

बबूल बोने वाले की, लोग जो खिल्ली उड़ाते ।
पट्टी खुलती आखों की ,औषधि जब उसमें पाते।
अंग अंग देकर सबको,,,खुद मिटा परमार्थ जाते ।

हर परिस्थिति में अनुकूल,रहो ये बबूल सिखाते ।
पूछ रूप की दो दिन का,, गुण उत्तम हमें बताते।

उषा झा (स्वरचित)
देहरादून(उत्तराखंड़)

Monday 2 December 2019

दिल को है अमर्ष

विधा - सरसी छंद आधारित # गीत 
16/11
  
खिली कली कुसमित देख धरा, दुष्ट हिय नहीं हर्ष ।
देख दशा नारी धरती की ,उपजे हृदय अमर्ष ।

शृंगार जगत का करे धरा ,नारी से परिवार ।
वृक्ष काट हरियाली हरते,नारी बीच बजार।।
हर दिल में मक्कारी हो जब ,कौन सुने तब पीर।
है छल कपट का बोल बाला,बचा नहीं मन धीर ।।
गया वक्त नारी धरती का ,कहाँ हुआ उत्कर्ष ।
देख दशा नारी धरती की, उपजे हृदय अमर्ष ।।

नुँची कली धृतराष्ट्र देखते,मिटे पेट में भ्रूण ।
बाँध नयन के टूट गए अब , खौल रहा अब खून ।।
शुष्क धरा बरसे नही बदरा,,जल बिन तरसे खेत 
 पीट रहा निज छाती किसान,कठिन वैशाख चैत ।।
चला कर अबला पर हुकूमत, निकले क्या निष्कर्ष?
खिली कली कुसमित देख धरा, दुष्ट हिय नहीं हर्ष ।।

नर को देख व्यथित हर नारी, गिरी अर्स से फर्श ।।
देख दशा नारी धरती की हृदय उपजे अमर्ष ।।

उषा झा 

Sunday 1 December 2019

सुगढ साझ मन हेरती

विषय - साँझ, संध्या, गोधूलि बेला
  विधा-  गीत (लावणी छंद )
मुखड़ा ...         
दिन भर जलना नियति, तप्त मन, अधिरता निगाहों में ।
अगन बुझाने छिप रहा भानु, निशा के पनाहों में ।

अंतरा ...
         1.
खग पशु मानव भी खोज रहे , एक छाँव प्रीति भरी ।
सुगढ़ साँझ मन हेरती आस, मधुर मिलन तृप्ति भरी ।

पंछी झुण्ड में लौटता, विटप गाय रंभा रही ।
गाता विभोर चरवाहा , रंग साँझ लुटा रही ।।

आशाओं के जब दीप जले, मन प्रिय के बाहों में ,
अगन बुझाने छिप रहा भानु ,निशा के पनाहों में ...।।
           2.
मासुम कली कुम्हला जाती, धूप तन मन जलाता ।
प्यासा पंछी दिन भर भटके, छाँव कहाँ बहलाता ।

लता वृन्द भी लुंज पुँज , नव किसलय मुर्छाया ।
मजदूर पस्त जलता तन , मन बहुत कुम्हलाया ।।

गोधूलि बेला हर्षित जीव , झूम रहे राहों में ,
अगन बुझाने छिप रहा भानु , निशा के पनाहों में ।
             3.
दूर कहीं मांझी जब गाता , हृदय भींग फिर जाता ।
फसल खेत में जब जल जाता, तड़प कृषक फिर जाता ।

थकती कोकिल कूक कूक , रुन्धित मन विरहण के ।
जाने अब किस देश मलय , सुषुप्त हृदय मनुज के ।

संध्या स्पर्श करे खिले हृदय , उत्सव मल्लाहों में ।
दिन भर जलना नियति, तप्त मन,अधिरता निगाहों में.. 
           4.
तम घिर गया, अस्त दिनकर , दीये मंदिर में जले ।
भजन गूँजते कानों में , उर भक्ति में खो चले ।।

झूलन मंदिर सब गाये , मन वृन्दावन घुमता ।
रास रंग में खोया जग , प्रिये संग उर खिलता ।।

चाँद तारे नभ जगमगाते, सित चाँदनी बाँहों में ।
दिन भर जलना नियति, तप्त मन , अधिरता निगाहों में ।

अगन बुझाने छिप रहा भानु , निशा के पनाहों में ।।
उषा झा



Wednesday 27 November 2019

जीवन के संताप

विधा - रोला 

ढलती जीवन साँझ , सुहाने पल हैं  बीते ।
फिसल गया जब वक्त , मनुज क्यों लगते रीते।।

पले दिलों में मोह , जिन्दगी व्यर्थ गँवाया ।
 किए नहीं जब कर्म, मनुज क्यों फिर  पछताया ।।
कटी नींद में उम्र ,  भुलाया नाते रिश्ते ।
जीवन संध्या पास , शीष पकड़ क्यों सिसकते  ।।
करते छल दिन रैन , गम संताप के पीते ।
फिसल गया जब वक्त, मनुज क्यों लगते रीते ।

तन से निकले प्राण, उड़े पिंजरे से देखो ।
धन दौलत बेकार , जरा तुम यही परेखो ।
गया  नहीं कुछ संग,   रटै तू   तेरा    मेरा   ।
धन बल का अभिमान, बँधा माया का फेरा ।।
धोया कब मन मैल , हरदम स्वार्थ में जीते   ।
फिसल गए जब वक्त , मनुज क्यों लगते रीते ।।

तुम जो बोये बीज , काटता फसल उसी का ।
त्याग दिया संस्कार, निभाया न फर्ज सुत का ।।
आई जीवन शाम ,मन अब लगे अकुलाने  ।
खुशियाँ होती बाँझ , भय फिर लगते समाने ।।
होता  यौवन  खत्म  , अश्रु नयन हैं  पीते  ।
फिसल गए जब वक्त,   मनुज क्यों लगते रीते ।।

ढलती जीवन सांझ, सुहाने पल हैं बीते ...।।

Monday 25 November 2019

शब्दों की शह और मात


 विधा-  दोहे

बाजीगर दिन रैन ही , सोचता नव बिसात  ।
खेल अनोखा खेलता, शह को मिलता मात ।।

हार जीत के खेल में, जीवन जाए बीत ।
व्यर्थ वाद विवाद करे, गाते अपनी गीत  ।।

दुख सुख जीवन चक्र है, मिले हमें  सौगात ।
प्रतिकूल अनुकूल बने , तम की कटती रात ।।

स्याह हृदय सफेद करें, ले लो प्रभु का नाम।
नफरत बदले प्यार में ,नेक करो कुछ काम।।

फैले प्रकाश हर्ष का , छँटे उर  अंधकार ।
जगमग अब घर द्वार में ,सुख बरसे आगार ।।

पथ अधर्म का छोड़ दो, मानवता ही धर्म ।
त्याग दया है मनुजता, मनुज करो कुछ कर्म ।।

 ऊँच नीच में मनु बँटा, मानसिकता  बिमार ।
 दीन -धनिक दिल कब मिले,नैन धन का खुमार।।


खिले हृदय पुहुप

विषय- सुगंधित ,सुरभि,  खुशबू , महक , सौरभ 
विधा - दोहा  (गीत)

दस्तक सर्दी दे रही, लगे सुहावन धूप ।
पर्वत तरु पर रवि किरण, लगतीं हमें अनूप ।।
मन विभोर खुशबू करे , बिखरे हरशृंगार ।
रोम रोम सुरभित हुआ, निखर गया है रूप ।।

मन आंगन पुलकित हुआ, गेह झर रही प्रीत ।
कुसमित है गुल बाग में, हृदय सुगंधित शीत ।।
प्रेम तिक्त उर में भरा , दूर है अब विरक्ति ।
प्रीतम जब हो पास में, हृदय भरा आसक्ति  ।।
प्रीत धार में डूब कर ,  उर नव धरा स्वरूप ।।
पर्वत तरु पर रवि किरण, लगतीं हमें अनूप।।

मुग्ध शीतल नैन भये, किरण मुदित है ओस ।
पुलक मंद समीर रहे , मुग्ध भोर मदहोश ।।
पुष्प लुटा सौरभ रही, भ्रमर गा रहा गीत ।l
 मदहोश हुए प्यार में , मन को भाये मीत।।
इतना जादू प्रेम में , बदल गए सब भूप ।।
पर्वत तरु पर रवि किरण, लगती हमें अनूप ।

कोंपल कलियों की खिली ,नैन हुए  रंगीन ।
उन्माद बढ़ा भ्रमर का ,तरसे जल बिन मीन ।।
 साँझ सुगढ़ मन हेरती , धरती उतरा  भानु ।
आकांक्षा  प्रीतम मिलन  , प्रमुदित हृदय कृशानु  ।।
पावन प्रीत अमर भये , हृदय में खिले पुहुप ।
दस्तक सर्दी दे रही , लगे सुहावन धूप ।
पर्वत तरु पर रवि किरण,  लगतीं हमें अनूप ।।
  

Thursday 21 November 2019

खो न जाए भरोसा

विधा - इन्द्रवज्रा वर्णिक छंद
221    221   121   22
थोड़े गमों में घबरा न  जाओ 
थोड़ी खुशी मेंं इतरा न जाओ
आए न कोई फिर भी बुलाओ
रिश्ते पराये सब से निभाओ ।।

दोनों हथेली पर हो भरोसा
तो जीत आसान बने हमेशा
दे भाग्य को तू कबहूँ न दोषा
कर्तव्य हीना न मिटे कुदोषा ।।

टूटे दिलों को तुम जोड़ देना
रूठे न कोई यह सोच लेना
रास्ते सभी जीवन में खुलेंगे
मुस्कान तेरे लव पे सजेंगें ।।

काँटे कभी मंजिल क्यों न रोके
ओ वीर खाना अब तो न धोखे
हारो न यूँ हिम्मत बुद्धि मानों
ओ सैनिकों धीरज अस्त्र जानो ।।

हो राह में संकट घोर यारो
काँटे बिछे हों फिर भी न हारो
शूलों भरे दामन पीर पाता
आशा न हो जी कब कौन पाता ।।
_________________________

Tuesday 19 November 2019

अनुपम अहसास

विधा- रोला

चोटी ढकती बर्फ , श्वेत धवल पर्वत दिखे  
देवदार औ चीड़ ,शीश किए ऊँचा दिखे ।।
छू लो बादल हाथ,  रूई सा उजले दिखे  ।
सुन्दर  नैनाभिराम, दृश्य पहाड़ों के दिखे ।।

 लौटे पंछी नीड़ , वे मधुर मिलन को गेह ।
दो दिल खोया प्यार, भर रहे  नैन में नेह।।
आयी सर्दी द्वार,    बिखर हरशृगांर गए। 
नया नया अहसास, मचल हृदय फिर भी गए ।।

आनंदित हर पोर, रोम रोम छाया नशा ।
आये साजन साथ,आज झूमती हर दिशा
हर्षित मानव मुग्ध , रश्मि छिटकती ओस है ।
खिले पुष्प सब बाग , मुग्ध नैन मदहोश है।।

सुरभित कानन मुग्ध,चूस अलि मकरंद रहे।
सुप्त हिया अनुराग, नैन झूम प्रीतम रहे ।।
मुक्त हुआ तन तप्त , गात शीतल, लिहाफ में ।
भींग रहा मन प्रीत ,बँध प्रीतम की बाँह में ।।

उषा झा

Monday 18 November 2019

मन ही दर्पण

विषय - दर्पण/ शीशा
विधा-  रोला 11/13
मद का दर्पण नैन, भ्रमित मनु कुन्द सोच है ।
सच से सब बैचेन , मृग पाने की खोज है।।
उड़ते नभ,बिन पंख, गिरेंऔधें मुँह धड़ से।
दर्पण में है सत्य, सुख जिंदगी में बरसे।।

दर्पण खोले पोल ,झूठ कभी न वो बोले ।।
सभी मुखौटे खोल, ज्ञान से खुद को तोले 
खुद को भीतर झाँक, धरातल पर रख पग, लो ।
चेहरा नहीं झाँप, हृदय सुन्दर हो पगलो! ।

मन से बना जवान, मिश्री उर में घोलता । 
कहाँ छुपे हैं सत्य ,दर्पण सब सच बोलता 
छुड़ा हाथ को वक्त, बढ निर्मोही  रहा है।
आईना वो देख, बाल श्वेत गिन रहा है ।।

भटक रहा दिन रैन, कभी न हृदय में झांका ।
कर्म नहीं थे नेक,नियम  न किसी  पर आंका ।।
समय गया जब बीत , फिर क्यों मनुज पछताया ।
मन दर्पण से पूछ , झूठ खुद को  बतलाया ।।

रोक न सकते उम्र, बाँट प्रीत  संसार में ।
दर्पण बना चरित्र , जलो नहीं अंगार में ।।
उत्तम नेक विचार, मिले सम्मान सभी से
बाह्य रूप बेकार, कहे ये दर्पण सबसे ।।




उषा झा

Saturday 16 November 2019

सपना हुआ साकार

विधा- रोला 

बसे पिया परदेश, याद हर क्षण आता है ।
मिले न कोई संदेश, चैन न हृदय पाता है ।।
मीरा के उर कृष्ण , ढूंढती वन सांवरिया ।
दर्शन की है प्यास,बन गई वो सांवरिया।।

भर कर मन विश्वास,हेरती राह पिया की।
आयेंगे पिय पास, बुझायें अगन, जिया का ।।
नित्य देखती स्वप्न , सजन थामे हैं बैया ।
 पी करते मधु बात ,नींद छीने री दैया ।।

प्रीतम  से अनुबंध,  कई जन्मों का मेरा ।
अनुपम अति सम्बंध, राधा कृष्ण का घेरा।।
दिल में केवल चाह,मिलन हो चाँद निशा सा ।
टूटे कभी न प्रीत , लगे उर को अपना सा ।।

  नैन सजाती ख्वाब, सावन मोरा अंगना ।
   रूप लिया संवार ,  कब आयेगें  सजना  ।।
   मुदित हृदय दिन रैन, प्रेम मिला उपहार है।
    निर्मल मन आकाश, स्वप्न हुआ साकार है ।।

उषा झा

Friday 15 November 2019

बरसे प्रीत फुहार

सजना  तेरा  साथ, दिया औ'  बाती जैसा ।
थाम लिया जो हाथ, जीवन मधुमास जैसा ।।
खुशियों का आधार ,सभी है पिया तुम्हीं से ।
झरता हरसिंगांर,महकता जिया तुम्हीं से ।

मन है गेंदा फूल, पिया उर वीणा  बाजे ।
पायल छनके पाँव,कंगना कर मे साजे।।
हृदय पगी है प्रीत, पिया ही दुनिया  मेरी।
जनम जनम की रीत,प्रीत है पावन तेरी।।

झूलूँ प्रिय गल-हार,अहो सौभाग्य हमारा ।
बसंत आया द्वार, है इन्तजार तुम्हारा ।।
खुश कितना संसार , कहूँ  कैसे  वर्णों मे ।
खुशियाँ नाचे द्वार, पड़ी तेरे चरणों मे।।

लायी बहार प्रीत , मौसम उमंग भरा है ।
आया मन का मीत,हुआ दिलआज हरा है।।
खिलते जब मन पुष्प ,लगते पग भी थिरकने।
रंग भरे मधुमास ,लगते दिल भी पिघलने।।

 हर्षित है खग वृन्द , भँवरे बाग में घूमे ।
कोकिल है आनन्द,  मोरा मन पिया झमे ।।
जग में प्रेम अनूप,जीवन खुशियाँ मनाता ।
जपे सभी दिन रैन, रात दिन खुशियाँ  लाता ।।

चखी  नेह की  बूँद ,पुलकित मन आंगन हुआ ।
बरसे प्रीत फुहार, कण कण रोमांचित हुआ ।।
मीरा  मन  बैराग, अंग प्रिय नहीं लगाता ।
अधर सजे मुस्कान, संग पिया का भाता ।।
उषा झा

Thursday 14 November 2019

बाजीगर

सिंहावलोकित

चालें बाजीगर चली  ,फँस जाते मासूम  ।
मासूम दूध से धुले, पकड़े शातिर दूम  ।।

हृदय में टकराव बढी, आये रिश्ते स्वार्थ ।
स्वार्थ कारण विनाश के, कर मनु कुछ परमार्थ ।।

लालच की पराकाष्ठा , करे करु क्षेत्र  याद ।
याद अनगिनत हृदय में , अपनों में ही  बाद ।।

लालच भारी प्रेम पर, लहू का कहाँ  मोल ।।
मोल जब होता  दिल का, रिश्ता फिर अनमोल ।।

जाना खाली हाथ है , छुपे हृदय क्यों  दाग ।
दाग तो भद्दा दिखता, सजा हिया के  बाग ।।

खुशबू बिखरे बाग में ,लगे अनगिनत फूल ।
फूल काँटों में खिलते , दुख जाते सब भूल  ।।

जीवन दर्शन है यही ,  नेकी दरिया डाल ।
डाल अहं की हविश मनु, नहीं भ्रम को पाल ।।

प्रेम के वशीभूत हरि

विधा- शृंख्ला दोहे 
वशीभूत हरि प्रेम के, हृदयंगम में  भक्त ।
बँध जाते है स्वयं हरि,नियम खत्म सब सख्त।

 नियम खत्म जब सख्त हो , बहे व्यर्थ में  रक्त ।।
मनुजता पर चोट जब, तब मर्यादा  जप्त 

तब मर्यादा जप्त हो ,आता हरि को क्रोध ।।
तन विराट धारण किए  , हरि के रूप अयोद्ध  ।।,

हरि के रूप अयोद्ध थे , समा गए संसार ।
यशुदा इतनी डर गई,विस्मित नैन निहार ।

विस्मित नैन निहारती,  कुटिल मनुज  को देख ।
 गिर मनुष्य कितने गए , मिटे मनुजता रेख ।।

मिटे मनुजता रेख जब ,  घृणा बिकै बाजार ।
प्रेम नेह दिल में नहीं,  रिश्ते है मँझधार ।।

रिश्ते है मँझधार में, करे प्रेम व्यापार ।
बना खिलौना दिल  लिया, जता रहे अधिकार ।।

गाँधी युग पुरुष

गाँधी का एक सपना, हिन्सा जग हो खत्म ।
खत्म ईष्या द्वेष करें,  मिटा हृदय से क्षद्म ।।

कहते गाँधी थे हमें , रिश्ते रहे प्रगाढ़ 
प्रगाढ़ प्रेम विभेद बिन,लाओ हृद से काढ़।।

ऊँच नीच निकृष्ट कथन ,सब है एक समान ।
समान काया मनुज के, विचार क्यों
 असमान ।।

जल वायु खुशी गम मिले,सभी ईश के पुत्र ।
पुत्र धर्म का फर्ज कर, लक्ष्य से  गुम कुपुत्र ।।

बापू ने जो सीख दी, दिल से कर स्वीकार ।
स्वीकार कर स्वच्छ धरा ,अब न करो अपकार ।।

लीलाधर घनश्याम

विधा-  दुमदार दोहे 

बहु भाग्य वृन्दावन के, बाल-कृष्ण का रूप।
नटखट माखन चोर बन , लगते कृष्ण अनूप ।।
जी लीला धर ले उड़े ।
नेह गोपी के उमड़े ।।

नित्य चोरी माखन नित्य ही , करें सखा, गोपाल ।
गोपी करें शिकायतें, जाते थे वो टाल ।।
जब कान्हा पकड़े गए ।
ओखल से जकड़े गए ।।

मुग्ध नैन ब्रजवास के, देख अलौकिक रास ।
मोहित राधा, कृष्ण पर, बंसी राधा दास 
वो यशुदा का  लाड़ला ।
गुपियन का भी लाड़ला ।

ब्रजभूमि के भाग्य खुले, कण कण में भगवान ।
पूरा द्वापर में हुआ , देवकि को वरदान ।।
कंस संहारा गया ।
दानव मारा गया ।।

भूल कृष्ण सबको गए, धेनु, यमुन के तीर
राज-काज में वे बहे, गुपियन बहता नीर ।
बाम अंग रुक्मी नार ।
 गोवर्धन अँगुर धार ।।

पार्थ कृष्ण को बहु प्रिय , सौपा गीता ज्ञान 
मोह भंग अर्जुन  हुआ, नष्ट हिया अज्ञान। 

बने  सारथी  मित्र के ।
महभारत के चित्र  थे।।

पाण्ड़व अकेले जब हुए, सिर्फ कृष्ण थे साथ ।
कुचला सिर अन्याय का , मिली जीत प्रभु हाथ ।।
दिखा मार्ग, मानव दिए।
;रूप विराटी धर लिए।।

Wednesday 13 November 2019

शूरवीर

विधा - गीत
ताटंक छंद 16/ 14 
अंत-- 222

रोक प्रिये!मत, मातृभूमि की...
गरिमा पर बन आई है ।
मात पुकारे है पुत्रों को ... 
दुश्मन अब हरजाई है ।।

मैं हूँ प्रहरी सदा देश का. 
दाग नहीं  लगने दूँगा ।
दुश्मन सरहद पार करे तो ... 
उसका लहू बहा दूँगा ।।
सैनिक सच्चा, भारत माँ का
नाको चने चबाऊँगा ।
भारत के सरहद केसरिया ...
झंड़ा मै लहराऊँगा ।।
भारत के शूरों से अ रि ने...
हरदम मुँह की खाई है ।
रोक प्रिये! मत मातृभूमि की...
गरिमा पर बन आई है ।।

 ऱँगी लहू से,निर्दोषों के .... 
धरती का दिल भी रोता ।
नापाक पाक , दिल ना-पाकी...
बीज जहर के ही बोता ।।
मारे निहत्थे को गद्दार .. 
दुश्मन सिर काटो काफी  ।
दीप बुझे जो, उदास बहनें.. 
अरि को मिले नही  माफी ।।
चिन्गारी हर  दिल में सुलगी 
 याद मित्र की आई है
रोक प्रिये  मत मातृभूमि ...

सैनिकों के बहे  शोणित को,
अव तक कौन भुला पाया?
आँसू विधवा वधु के कहते ,,,
पुत्र नहीं  जीवित आया।

हर हिन्दुस्तानी है गम में ...
मौका मिला न वीरों को
दें शहादत देश की खातिर, 
हसरत होती वीरों को
लिपट तिरंगे में जब आया ..
आँखें सब भर आई है
रोक प्रिये मत..

शौर्य सदा इतिहास लिखेगा ,
,प्रहरी वीर अनोखे हैं 
सेज बिछाते  है काँटों की, ..
आतंकी, दे धोखे हैं ।
वार पीठ पर करने को फिर
जालिम भोज परोसे हैं 
वहशी झाड़ कुकुरमुत्ते के...
बेला काटन की आई है।
.रोक प्रिये मत,,,  

उषा झा (स्वरचित )
देहरादून (उत्तराखंड )

Tuesday 12 November 2019

प्यार का मौसम

विधा - रोला 

दस्तक सर्दी द्वार, आने वाली शीत  है ।
दो बूँदें प्रेम जब , भावे मन को मीत है ।।

जगे हिया अहसास ,याद कहानी हो रही ।
झरते हरशृंगार ,    प्रीत दिवानी हो रही ।।

तुझे खोजते नैन,  बसी  है मूरत  मन में ।
है निशान मौजूद ,बसती आस नयनन में ।

लायी बहार प्रीत , मौसम उमंग भरा है
आया मन का मीत,हुआ दिलआज हरा है

खिलते जब मन पुष्प ,लगते पग भी थिरकने।
रंग भरे मधुमास ,लगते दिल भी पिघलने।

 हर्षित है खग वृन्द , भँवरे बाग में घूमे ।
कोकिल है आनन्द, मेरा पिया मन चूमे ।

जग में प्रेम अनूप,जीवन खुशियाँ मनाता 
जपे सभी दिन रैन, रात दिन खुशियाँ  लाता ।।

चखी  नेह की  बूँद ,पुलकित मन आंगन हुआ ।
बरसे प्रीत फुहार, कण कण रोमांचित हुआ ।।

रहे अधूरे  ख्वाब , चली दो सिरे जोड़ने ।
चुनने शिउली फूल , चली फिर तुम्हें ढूँढने 

मिलने का विश्वास ,नही टूटा है अब भी 
मत मृगतृष्णा पाल,जानता इसको जग भी ।

उषा झा 


राधा हुई दिवानी

कुन्डलियां

कृष्ण संग राधा मगन , मनवा है बैचेन  ।
रिश्ता अद्भुत प्रीत का,नैन बाँचते बैन ।।
नैन बाँचते बैन,प्रिये बिन मुश्किल  जीना ।
 पिय बिन तरसे नैन,सुहाता मधु रस पीना।।
डूब रही आकंठ, जले विरह में तन बदन  ।
मुरली दई छुपाय, राधा के केवल कृष्ण ।।

पिया छुपे किस देश में , खोया मन का चैन ।
बस में अपना दिल नहीं , निशदिन बरसों नैन ।।
निशदिन बरसों नैन ,  ढूंढते हैं प्रियतम को ।
धड़कन करता शोर,सँभालो आकर हमको ।।
मन में तेरा आस,प्यास अबूूझ बुझे जिया ।
 बसे तुम्हीं में  प्राण, राधा विह्वल बिन पिया ।

बहका रहा मलय हिया ,लिए जाय किस देश ।
बस में अपना दिल नहीं ,मुग्ध दृग प्रेम भेष ।।
मुग्ध दृग प्रेम भेष ,   नैन ढूँढे है साजन ।
कहाँ सजन बिन चैन,प्रीत है अपना पावन ।।
राधा के मन कृष्ण   ,पुष्प हो जैसे महका ।
दिल कान्हा को वार,नयन है बहका बहका ।

मोहित करती कामिनी  मटकी फोड़े कृष्ण ।
नीर घट से छलक रहा, लगते अद्भुत दृश्य।
लगते अद्भुत दृश्य , भींग गए सब वस्त्र है  ।
झांक रहे सब गात, नैन लाज से त्रस्त  है ।
विह्वल करता प्रेम, मानिनी हृद में शोभित ।
जादू करता रूप ,  कामिनी हुई है मोहित ।।


Sunday 10 November 2019

बावरी गोपिन

विधा- किरीट सवैया 01
मापनी - 211* 8 सगण 12 वर्ण पर यति

 211  211 2 11   211     211  211   2 11  211
प्रेम सुधा बरसी सब आँगन , बाजत है मुरली मन भावन
पावन पूनम की जब  रौशन , रात हुई फिर चाँद छुपा मन
गोपन  नैनन  शीतल ठंडक  रास रचा वत कोप भुलावन
नेह भरे सब के हिय ये धन ,छीन सके अब कौन बुलावन

पुष्पित प्रेम सरोवर डूबि रही मुरली सुन,  गोपन  धावत  
कंचन देेह सुखाय गये प्रभु प्रीति डली मिसरी सन लागत
काम सभी बिसरा कर माधव संग चली मन जो बहकावत 
झूमि रहा नर नारि सभी मिलि साँझ भये सब झूलन गावत

कृष्ण बसे मथुरा नगरी सब , भूल सखा अब केवल  , 
कोंपल प्रेम सभी उर मुरझावत  ग्वालन नैन बहे पिघले  सब 
वो छलिया अब याद करे तब , दंश वियोगन शूल जले सब
पीर दिये विरहा तड़पी वृृृषभानु सुता उर तीर चले जब 

उषा झा (

Saturday 9 November 2019

सरहद पे लहराए केसरिया

विधा - गीत
ताटंक छंद 16/ 14 
अंत-- 222

मत रोक प्रिये!, मातृभूमि की...
गरिमा पर बन आई है ।
मात पुकारे है पुत्रों को ... 
दुश्मन अब हरजाई है ।।

मैं हूँ प्रहरी सदा देश का. 
दाग नहीं  लगने दूँगा ।
दुश्मन सरहद पार करे तो ... 
उसका लहू बहा दूँगा ।।
सैनिक सच्चा, भारत माँ का
नाको चने चबाऊँगा ।
भारत के सरहद केसरिया ...
झंड़ा मै लहराऊँगा ।।
भारत के शूरों से अ रि ने...
हरदम मुँह की खाई है ।
मत रोक प्रिये! मातृभूमि की...
गरिमा पर बन आई है ।।

 ऱँगी लहू से,निर्दोषों के .... 
धरती का दिल भी रोता ।
नापाक पाक , दिल ना-पाकी...
बीज जहर के ही बोता ।।
मारे गद्दार निहत्थे को  .. 
दुश्मन सिर काटो काफी  ।
दीप बुझे जो, उदास बहनें.. 
अरि को मिले नही  माफी ।।
चिन्गारी हर  दिल में सुलगी 
 याद मित्र की आई है
मत रोक प्रिये मातृभूमि ...

शहीदों के बहे  शोणित को,
अव तक कौन भुला पाया?
आँसू विधवा वधु के कहते ,,,
पुत्र नहीं  जीवित आया।

हर हिन्दुस्तानी है गम में ...
मौका मिला न वीरों को
दें शहादत देश की खातिर, 
हसरत होती वीरों को
लिपट तिरंगे में जब आया ..
आँखें सब भर आई है
मत रोक प्रिये..

शौर्य सदा इतिहास लिखेगा ,
,प्रहरी वीर अनोखे हैं 
सेज बिछाते  है काँटों की, ..
आतंकी, दे धोखे हैं ।
वार पीठ पर करने को फिर
जालिम भोज परोसे हैं 
वहशी झाड़ कुकुरमुत्ते के...
बेला काटन की आई है।
मत रोक प्रिये ,,,  






Thursday 7 November 2019

विश्वास

प्रश्नोत्तरी दोहे 

तबियत, प्रिय को देख क्यों , मचल रही है आज।
 खुद पर रख विश्वास लो, तभी सफल सब काज ।।

मम हृदय घनश्याम बसो,नेह तुम से अपार ।
मुझे दुखों से तार दो, लो अपने पर भार  ।

करे नित्य अन्याय मनु , मनुजता शर्मसार ।
हार गया विश्वास भी,लहू के बहे धार ।।

संतान भी छल करते,भरे माँ बाप आह ।
एकाकी बुजुर्ग हुए, जिन्दगी बीच राह ।।

कैसा आया दौर है, सभी जड़ काट गए  ।
दूरियाँ दिलों में बढ़ी ,मनु  हृद गड्ढे  पाट ।।

दुख में जो होते खड़े,वह असली इंसान ।
रब देते साथ उसका ,जग करते सम्मान ।।

त्याग दया दिल में नहीं, कोई करे न प्यार ।
नेकी जो मनुज करते, हर दिल जाते हार ।।

Saturday 2 November 2019

पहचान

दुख सुख में प्रभु! सब बँटे , तुमने किया विभेद ।
एक सभी तेरे लिए , फिर क्यों करता भेद ?

 पिघला तेरा क्यो न हिय, लाचार किए मर्द ।
किसी की झोली भरता, दिया किसी को दर्द ।।

आँच सत्य पर जब नहीं , सच फिर क्यों लाचार ।
दिल को भाता  झूठ है, सत्य कैद दीवार ।।

अपना दुख लागे बड़ा , दिखे न दूजे पीर ।
मानव लिपटा स्वार्थ  में, देता मन को चीर ।।

कान खोल सुन ले मनुज , प्रेम बसे संसार 
जग उजाड़ नफरत भरी,दई मनुजता मार।

क्यों मनुज जड़ खोद रहा ,खुद जाएगा सूख
सिंचित कर नींव अपने, बदले तेरा रूख ।।

देख सूरत रीझ गया , पकड़ा अपना माथ ।
गुण की जिसको परख है, खुशियाँ उसके साथ ।।

उषा झा

Friday 1 November 2019

कुरीति


विधा- गीत 16/ 14 ( लावणी छंद)
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मुखड़ा

क्यों कुरीति की बलि बेदी पर
चढ़ती नारी हर युग में ?
किस्मत की मारी को सब ही ,ठोकर मारे जग में ।

अंतरा

नियति ने मझधार जब छोड़ा,,नही मौन दृग, नीर बहा ।
पूत संग वह रही अकेली ,भरी जवानी बनी तन्हा।।
बिखर कामना गई ,रेत सम,भरी वेदना जीवन में 
मान अभागिनी को दे कौन?, पीर जले अंतस् मन में ।।
क्यो कुरीति की बलिबेदी...

जीवन में बिन रंग उम्मीद ,,करके कैसे ज्योति जले ?
डोर नेह की, थामे जीती ,दिल में, सुत के ख्वाब पले।।
बना हृदय पाषाण पीर से,,अटल-कर्तव्य पथ पर थी ।
पुत्र संग माँ भी खुश रहती,आंचल में नेह भरी थी ।।
हुई सफल तप, माँ बलिहारी, सुत खुश नूतन भविष्य में 
क्यो कुरीति के बलि बेदी....

अबला पुलक रही बेटे को , शुभ निहारन की घड़ी है ।
घोड़ी चढ़ कर पुत्र पुकारे, आ माँ तू कहाँ छुपी है?
नयनों का टूटा बाँध तभी, चाल चली विधि ने गहरी ।।
लगाती नजर टीका सतु को, उस माँ की ही नैन भरी ।
सहे वैधव्य बुत हतभागी , सुन ग्रहण! डूबी दर्द में ।
क्यो कुरीति के बलि बेदी....

देर हुई क्यों सुत आशंकित , घर में माँ को खोज रहा ।
करे तिलक अपशगुनी कैसे , किसी ने माँ को क्या कहा ।
संवेदन हीन बने परिजन ,, हृदय पूत का व्यथित हुआ ।
धूँध छँटा सबके मन से जब, सुत सब पर नाराज हुआ ।
माँ तुम से पहचान शगुन की ,,खुशी तुम्हीं से जीवन में ।।
क्यो कुरीति पर वार....

मन गढंत है बात अशुभ शुभ, बंदिश नहीं मुझे सहनी
थोप मनमर्जियाँ फिजूल की, नारी को करते छलनी
करदो कुप्रथा का बहिष्कार, है जिम्मेदारी सबकी ।
माता सी कोई उपकारी , नहीं हुई है इस जग की ।

क्यो कुरीति के बलि बेदी क्यों कर,,चढ़ती नारी हर युग में ।
किस्मत की मारी को ठोकर, मारे हर कोई जग में ।।

उषा झा स्वरचित 
देहरादून उत्तराखंड

मनुजता बेजार

विधा-  प्रश्नोत्तरी दोहे

मानव क्यों राक्षस बना,पीता क्यों वो रक्त ?
विवश मनुजता आज है,मति गायब बेवक्त।

मात-पितु के हिय सिसकें , परिवार रहा टूट
रिश्ते सब  दुश्मन बने , भाई भाई फूट ।।

नीड तिनकों से बनते,उड़ा दिया क्यों गेह?
चलती आँधी स्वार्थ की, नष्ट परस्पर नेह।

मानसिकता लोभ ग्रसित, क्यों मानव लाचार ।
सारे रिश्ते बेच कर , हुआ मनुज  बेजार ।।

पौरुषता है गुम कहाँ, लापता स्वाभिमान 
लज्जा किसी की न रखो , करो रोज अपमान ।।

अभिभावक बेघर हुए ,कहाँ  गया घरबार?
भिजवा वृद्धाश्रम दिया, बेटे धक्के  मार।

संस्कार बेकार गये ,,हिय में क्यों है ताप ?
कुसंस्कारी पूत हुआ,व्यथित आज माँ बाप।

धन दौलत के लोभ में,मनु क्यों करे  नुकसान?
कौड़ी जाए संग कब, ले संग पुण्य का दान।।

रिश्ते माया पर टिके,कब चढ़ते परवान?  
प्रेम हुआ अनमोल है,मूरख तू यह जान।

बने पराये मीत जब,किसे दिखाए दर्द ?
बीवी के पल्लू छुपे , रहते हैं सब मर्द ।।

प्यास बुझाता रक्त से,मानव क्यो शैतान? ।
कटते बकरी भेड़ से,नीयत बेईमान ।।

गिरा जगत को गर्त में,मनु क्यों करता नाश?
कौड़ी भर औकात से, सिर्फ मिले उपहास  ।।


उषा झा

हरि के अद्भुत प्रेम

प्रेम से बंधे प्रभु हैं , अद्भुत प्रभु का रूप ।
मन से जो उन्हें भजते, भक्त लगते अनूप ।।
भक्त लगते अनूप, हैं बस में वो प्रेम के ।
भूल अगर मान लो ,रखे छाँव में नेह के ।।
झूठे चलते बेर , ,वात्सल्य से भरे प्रेम  ।
हृदयंगम में भक्त ,  हरि के अद्भुत  प्रेम ।।

सबरी हो कर के मगन ,हुई प्रेम में लीन
हरि दर्शन को तड़पती , जैसे जल बिन मीन
जैसे जल बिन मीन, प्रेम की भूखी सबरी
सुध बुध दई भुलाय, हर्ष में खुद को बिसरी
 आई जब वह होश , लगे ज्यों हुई बावरी
 हरि को देती बेर, नेह से चखकर सबरी

Thursday 31 October 2019

कड़वी याद


122 2     122 2           12 22     1222
तुम्हें फिर याद कर आँखें जगी बस पीर सोती है ।
उदासी अब गमों के बीज ही हर वक्त बोती है ।।

कभी तुमने मुझे भी प्यार कर रखते पनाहों में ।
पराये क्यों किया उर जख्म से बेजार रोती है ।।

हृदय तो अब तलक मंजर मिलन के देख कर जीता ।
सुहाने दिन ढ़ले अब भी जतन से क्यों सँजोती है ।।

जला दिल बात कड़ुवी याद करके पिघलती रहती ।
तड़प कर मन मुझे अब आस बंधाती न होती है। ।

हमेशा मन दुखाया जो उसे मैंने दिया ये दिल ।
जगी अब नींद से उनपर सभी विश्वास खोती है ।।

उषा झा (स्वरचित )

खंडित विश्वास

रुला गया क्यों बेवफा,क्या था मेरा दोष?
नीड़ प्यार का जल गया,रिक्त प्रेम का कोष।

दूध सपोले को पिला, किया सदा विश्वास 
डंक मुझे अब मारता,शेष न कोई आस ।

टूटे रिश्ते काँच से,भरी हृदय में आग।
मुखड़ा उसका चाँद सा,लेकिनउसमें दाग 

जीना क्यों मुश्किल हुआ, करता रहा  प्रहार 
मात-पिता उसके लिए,लगते असह्य भार 

आँधी क्यो बनता पिया, उड़ा दिया क्यों नीड़?
दो राहों पर मै खड़ी,देख रही जग भीड़ ।।

रीत रहा घट हृदय का, छलता क्यों है  प्यार।
बीज प्रपंची बो गया, वोछलियाअवतार ।

नही धार तलवार पर,चलना है आसान ।
करे कैद जज्बात को, वो पत्थर इन्सान ।

Saturday 26 October 2019

प्रेम दीप जले

विधा - सुन्दरी सवैया
आठ सगण और गुरू (112/8 2)

112   112   112     112  112  112 112  112 2
धनतेरस की शुभ साँझ भये धन धान्य सभी घर में बरसा दे
घर द्वार सजा सब बैठ गए कब आंगन पैर कुबेर सहसा दे
मन ज्योति जले ,दिन रैन बढे खुशियाँ कमला धन तू बरसा दे
 मग दीपक एक जले यम दूर रहे वरदे, मुख सिर्फ हँसा दे

प्रिय नेह भरे जब दीप जले मदहोश हुआ मन भींग रहा है
 घर रौशन प्रेम करे सबके घृत डाल अहं ,हृद पींग रहा है
मुख दर्शन को उनके मचले मनमोहन, क्यों उर धींग रहा है 
बस प्रीत प्रकाशित हो दिल में तम दूर रहे , तन भीग रहा है

Friday 18 October 2019

वियोग


1222      1222   122 2    2212
प्रिये मेरी खबर ले लो उदासी तड़पा रहा   ।
तुम्हारी याद देते दर्द मुझको अब भटका रहा  ।।

अभी तक देखती राहें तुम्हें ही दिल चाहा करे
प्रणय के दिन दिखाते ख्बाव कितने,मन महका रहा ।

कई दास्तान की खोली अभी मैंने फिर पोटली ।
पुरानी याद नस्तर क्यों चुभा कर तन दहका रहा ।।

अकेली अब चली जाती विरानी सी सूनी डगर  ।
वफा पर चोट गंभीर , जख्मी तन सहला रहा  ।।

जिगर की है जगी आशा कभी मुझपर बहुरे सजन  ।
निराशा में मरू तृष्णा नयन को फिर दिखला रहा ।।

उषा झा (स्वरचित )
देहरादून( उत्तराखंड )

सीता स्वयंवर


विधा- मनहरण घनाक्षरी
8, 8, 8, 7
तोड़ दिए धनु राम
बज उठे शंख नाद
हर्षित थे ऋषि संग
जनकपुर धाम

जनक के प्रण पूर्ण
डाल दी सिया माला
द्वय दिल एक हुए
मिले तप का दाम

देख के टूटे घनुष
विश्वामित्र थे मायूस
ऋषि दाए ज्यों ही शाप
मिले दुष्परिणाम

खतम हुआ आवेश
हृद हुए भावावेष
हुए बहू पश्चाताप
बिगड़े सब काम

होनी पर बस नहीं
दो दिल मिले नहीं
विलग हुए थे दोनों
भाग्य हो गए बाम

उषा झा (स्वरचित )
देहरादून उत्तराखंड

Sunday 6 October 2019

स्वार्थ लील गए रिश्ते

सिंहावलोकित(दोहे )

चालें बाजीगर चली  ,फँस जाते मासूम  ।
मासूम दूध से धुले, पकड़े शातिर दूम  ।।

हृदय में टकराव बढी, आये रिश्ते स्वार्थ ।
स्वार्थ कारण विनाश के, कर मनु कुछ परमार्थ ।।

लालच की पराकाष्ठा , करे करु क्षेत्र  याद ।
याद अनगिनत हृदय में , अपनों में ही  बाद ।।

लालच भारी प्रेम पर, लहू का कहाँ  मोल ।।
मोल जब होता  दिल का, रिश्ता फिर अनमोल ।।

जाना खाली हाथ है , छुपे हृदय क्यों  दाग ।
दाग तो भद्दा दिखता, सजा हिया के  बाग ।।

Friday 4 October 2019

रेख मनुजता की

विधा - श्रृंखला बद्ध  (दोहे)

वशीभूत हरि प्रेम के, हृदयंगम में  भक्त ।
बँध जाते है स्वयं हरि,नियम खत्म सब सख्त।

नियम खत्म जब सख्त हो , बहे व्यर्थ में  रक्त ।
मानवता पर चोट जब, तब मर्यादा  जप्त ।।

तब मर्यादा जप्त हो ,आता हरि को क्रोध ।।
तन विराट धारण किए  , हरि के रूप अयोद्ध  ।।

हरि के रूप अयोद्ध थे , समा गए संसार ।
यशुदा इतनी डर गई,विस्मित नैन निहार ।

विस्मित नैन निहारती,  कुटिल मनुज  को देख ।
गिर मनुष्य कितने गए , मिटे मनुजता रेख ।।

मिटे मनुजता रेख जब ,  घृणा बिकै बाजार ।
प्रेम नेह दिल में नहीं,  रिश्ते है मँझधार ।।

रिश्ते है मँझधार में, करे प्रेम व्यापार ।
बना खिलौना दिल  लिया, जता रहे अधिकार ।।

सपने पूच्छल तारे

विधा - गीत

ख्वाहिशें ली अंगड़ाईयाँ, जुगनू बन चमक रहे
आये तारों की बाराती , क्यों गुमसुम खड़े गुणे ।

आज मन पंछी सा उड़े हैं ,तुमको ही ढूंढ रहे
देख क्षितिज में लाली छायी, प्रियतम इन्तजार में ।
फिर से मृगमरीचिका देखो, मरू में भरमा रहे
नैन आस की बदली आई, सुहाने दिन ढल रहे।
ख्वाहिशों की....

ये कैसी उर को प्यास लगी , बेबस पाँव जमे हैं
कौंध रही यादों की बिजली , जड़वत हुए ठगे हैं ।
पूनम की रात बैलगाड़ी, लिये सैर को निकले
थँसा वक्त का पहिया ज्यूँ ही, अब तो दम निकल रहे।
ख्वाहिशों .....

दूर चले आए हम कितने , छुट गए सभी अपने
तन्हा सफर कटे अब कैसे, पूच्छल तारे सपने ।
छोड़ जगत को जो जाते हैं,बने प्रकृति के गहने
लता वृन्द में खोज रहे हैं , वृन्दावन भटक रहे ।
ख्वाहिशों .....

Wednesday 2 October 2019

सपना गाँधी का

विथा- सिंहावलोकित (दोहे)

गाँधी का एक सपना, हिन्सा जग हो खत्म ।
खत्म ईष्या द्वेष करें,  मिटा हृदय से क्षद्म ।।

कहते गाँधी थे हमें , रिश्ते रहे प्रगाढ़ ।
प्रगाढ़ प्रेम विभेद बिन,लाओ हृद से काढ़।।

नहीं मनुज भूखा  रहे,सपने भर लो नैन
खुशियाँ छलके नैन से ,भरे नेह से रैन ।।

ऊँच नीच निकृष्ट कथन ,सब है एक समान ।
समान काया मनुज के,विचार क्यों असमान।।

जल वायु खुशी गम मिले,सभी ईश के पुत्र ।
पुत्र धर्म का फर्ज कर, लक्ष्य से  गुम कुपुत्र ।।

द्वेष हाॅवी मानव पर , राह करे अवरुद्ध ।
राह अवरुद्ध दुखद है , रहते गाँधी क्षुब्ध ।।

बापू ने जो सीख दी, दिल से कर स्वीकार ।
स्वीकार कर स्वच्छ धरा , अब न करो अपकार ।।

Tuesday 1 October 2019

रिश्ते प्यार से

विधा' - सिंहावलोकित दोहे

दिल के रिश्ते, युगों से, हुआ प्रेम-आधार ।
आधार, प्रीत जगत की,बने तभी संसार ।

मन-मंदिर में प्रेयसी, बसी हैं रोम-रोम ।
रोम-रोम हर्षित हुआ,करे प्रेम, हृद मोम ।

पलकों में प्रियतम बसे,देख रही वो राह ।
मुश्किल कितनी, राह हो,प्रीत है बेपनाह

मोती टपके नैन से,  देते  प्रीतम  शूल।
शूल से बोझिल,पलछिन,उड़े ख्वाब के धूल ।

दंश-विरह के जब मिले,मुख से निकले आह।
आह से प्राण न निकले  , ईश करे आगाह ।।

रहें संग, दोनों युगल, हो जीवन में प्यार ।
प्यार बिन अधूरे मनुज , बहे प्रेम रस धार  ।।

चाहत के इकरार से , है जिन्दगी हसीन ।
हसीन जब हो हमसफर , भाग्य नहीं फिर दीन ।।

विश्वास, त्याग, नेह से,दिल लेते हैं जीत ।
मान हार लो जीत कर,यही प्रीत की रीत  ।।

उजड़े घर फिर से बसे, दिल में हो संकल्प
संकल्प से रिश्ते सुधरे  , बस प्रेम ही विकल्प ।।

Saturday 28 September 2019

युग द्रष्टा घनश्याम

विधा- दुमदार दोहे

बहु भाग्य वृन्दावन के, बाल-कृष्ण का रूप।
नटखट माखन चोर बन , लगते कृष्ण अनूप ।।
जी लीला धर ले उड़े ।
नेह गोपी के उमड़े ।।

चोरी माखन नित्य ही , करें सखा, गोपाल ।
गोपी करें शिकायतें, जाते थे वो टाल ।।
जब कान्हा पकड़े गए ।
गोप संग जकड़े गए  ।।

मुग्ध नैन ब्रजवास के, देख अलौकिक रास ।
मोहित राधा, कृष्ण पर, बंसी फूँके श्वास ।।
वो यशुदा का  लाड़ला ।
गुपियन का भी लाड़ला ।

ब्रजभूमि के भाग्य खुले, कण कण में भगवान ।
पूरा द्वापर में हुआ , देवकि को वरदान ।।
कंस संहारा गया ।
दानव मारा गया ।।

भूल कृष्ण सबको गए, धेनु, यमुन के तीर ।
राज-काज में वे बहे, गुपियन बहता नीर ।।
बाम अंग रुक्मी नार ।
गोवर्धन अँगुर धार ।।

पार्थ कृष्ण को बहु प्रिय , सौपा गीता ज्ञान
मोह भंग अर्जुन  हुआ, नष्ट हिया अज्ञान।
बने  सारथी  मित्र के ।
महभारत के चित्र  थे।।

पाण्ड़व अकेले जब हुए, सिर्फ कृष्ण थे साथ ।
कुचला सिर अन्याय का , मिली जीत प्रभु हाथ ।।
दिखा मार्ग, मानव दिए।
;रूप विराटी धर लिए।।

Friday 27 September 2019

शिव ही सृष्टि

विधा - दूमदार दोहे

जटा चंद्र ग॔गा बसे , अद्भुत योगी राज।
डमडम डमरू बज रहे,नाच रहे नटराज ।।
शिव के माला साँप ।
नंदी   जाये  भाँप ।।

शोभते रुद्राक्ष गले , रक्तिम नेत्र विशाल ।
भूत प्रेत नंदी लिये , घूमते  महाकाल ।।
भस्म रमाये  अंग ।
शिखर पार्वती संग ।।

भोले निर्मल हृदय के , पल में दें वरदान ।
दानव भी जब पूजते , दे तभी महादान ।।
अमर हुए सब देव
खुश  हुए  महादेव ।

समुद्र मंथन जब हुआ, निकले थे विष सोम ।
माणिक लूटे देव सब, देख मोहनी भौम।
सभी दानव देव लडे।
अमृत पान को वे अड़े ।।

कौन हलाहल विष पिये ,आफत मे थी जान ।
देव असुर,भयभीत थे , शंभु किए विष पान ।।
सब कहे नील कंठ ।
सभी क्रोध में संठ ।।

गौरी संग प्रसन्न शिव , रहते हैं कैलाश ।
होते  हैं भक्त अति प्रिय ,करे दुष्ट का नाश ।।
भोले, भोले नाथ ।
वे है दीना नाथ।।

पाप जगत में जब बढे, धरे रोद्र शिव रूप ।
जब त्रिनेत्र  खुलते गए, खत्म सृष्टि के भूप ।।
करे माफ शिव भूल ।
हरे भक्त के शूल ।।

बेरहम

कैसे करूँ उनकी बंदगी
बीच राहों पर है जिन्दगी

 वफा की कीमत ही चुकाई
 मिला सिर्फ मुझको रुसवाई
 छँटे नहीं  नैन से भ्रम कभी
  करता था हर दिन दरिन्दगी
  कैसे करूँ उनकी बंदगी ...

  ढाया सितम टूटा दिल कहीं
  दिया हृदय में वो जगह नहीं
  दिल में भरती सिर्फ आह ही
  साथ पल भर के दिए दर्द ही
  बची है अब तन्हा जिन्दगी
  कैसे करूँ उनकी बंदगी ...

उषा झा देहरादून
 

दिल पर बल न डालो

  12122     12122         1 212 2        12122
रहा नहीं गम कभी हमें भी,खुशी मिली जो तुम्हीं सँभालो ।
भुला ,रहे तुम रहम कभी तो करो, हमें अब कुचल न डालो  ।।

वफा नहीं वो करे उन्हें क्या कहे किसी से न आरजू अब ।
मियाँ दिखाते शकल न अपना,किसी परी पर फिसल न डालो

कभी पुकारा तुम्हें हृदय से, मगर न कोई जवाब पाया ।
चलो मिटा दो सुहानी यादें , खुशी में अब खलल न डालो ।

दिवा स्वप्न से जगी तो दिल का खुमार जाने कहाँ गया है।
यहाँ तो माँगे न भीख मिलती, चलो हृदय पर ये बल न डालो

नहीं गिला है सनम जहाँ भी रहो दुआ है  मिले सभी सुख
 गुजर गए वक्त प्यार के अब जुदा है राहें  दखल न डालो।।

यकीन किस का करें जिगर पर लगी अभी चोट जो गहरा है ।
उड़ा रहा था पतंग जैसा , गिरी धरा पर  पहल न डालो ।।

Thursday 26 September 2019

विकल राधा

विधा- मधुमालती
२२१२    २२१२ 
राधा विकल ,मन हो चली 
यमुना किनारे रो चली
मोहन बिना, सूनी गली
वृषभानु की, वह लाड़ली

छलिया खुशी, सब ले गया
वह दर्द कितने दे गया
विरही भटकती राधिका
वह श्याम की है साधिका

कैसे जिए अब साँवरी
माधव पुकारे बावरी
बंसी बजा, अब मोहना
दुख से उबारो सोहना

जीवन कहीं, पर खो गया
जब दूर कृष्णा हो गया
प्रियतम कहाँ तुम हो गए
नेहा लगा क्यूँ सो गए

ब्रज की गली, चुपचाप है
हर ओर बस, संताप है
माया ठगे, से लोग हैं
यह लाइलाजी रोग है
 
उद्धव नहीं समझाइए
अब ज्ञान ना, बतलाइए
राधा नहीं, जब श्याम की
विधना भला, किस काम की

राम सिय वनवास

विधा-चौपाई/ दोहा(कड़वक)
विषय - राम वनवास

कैकयी सिया राम से  ,,करती स्नेह  अटूट
थी मंथरा कुटिल बहुत ,,महल डाल दी फूट
 
जभी कुमति ने डेरा डाला
आ ही गया दिवस फिर काला
 जा रहा विटप राज दुलारा
 छा गया नगर में अँधियारा

युवराज चले अब महलों के
जो थे ज्योति सभी नैनों के
दुखद घड़ी की बेला आई
राज महल में दुर्दिन छाई

जान लिया कारण दुख का
मान लिया आदेश पिता का
राग द्वेष  बिन आज्ञा कारी
लगी कैकयी माता प्यारी

रघुवर नंगे पाँव गए वन
सबके निष्प्राण हुए मन
लहर शोक की जन जन छाई
 नगर अयोध्या विपदा आई

कौशल्या को  मुर्छा छाई  ।
गंगा यमुना नीर बहाई    ।
बजे महल में पायल किसकी
बसे प्राण सीता में उसकी

वैदेही जब वन चली ,,कानन विटप उदास
सिया पाँव छाले पड़े,,मलिन मुख नहीं खास 

हुआ पिया बिन जीना भारी
रही अधूरी पति बिन नारी
मौन उर्मिला थी शर्मीली
नैन नीर रख रही अकेली ।।

चली  विमाता चालें कैसी
कसम खिला दी क्यों कर ऐसी ।
पुत्र राम प्रस्थान किए वन
दशरथ तज दिए प्राण तत्क्षण  ।।

छा गई महल अजब उदासी
हुए राम लक्ष्मण  वनवासी
विधि का विधान किसने जाना
दासी का क्यों कहना माना

भरत खबर सुन दौड़े आए
प्रजा संग माता को लाए
चरण पकड़ भाई के रोया
राम भरत को गले  लगाया  ।। 

दोनों भाई मिल रहे,,  नैन बह रहे नीर
रघुवर भी विचलित हुए ,,था द्रवित उर अधीर

भाई मिलाप पीर भरा था
सब नैनों में अश्रु भरा था
किस्मत ने सब खेल रचाया
कानन कुँज भी अश्रु बहाया  ।।

राम भरत को फिर समझाया
कर्तव्य सभी फिर बतलाया
कर्म करो तुम जब तक आऊँ
लौटे लेकर भरत खड़ाऊँ  ।।
 
महान पूत राम कहलाते
मर्यादा की रीत सिखाते
सारे जग हो कुटुम्ब जैसे
युगों जनम लेते मनु ऐसे  ।।

व्याकुल माँ कहती फिरे ,,हुआ ग्रह का मेल
राम सिया वन वन फिरे,,भाग्य का है खेल

उषा झा स्वरचित

 

दर्द दरिया की

विधा - मालिनी छंद

111 111 222 122  122
हर पल सहती नारी युगों से अकेली
सरस मन कभी कोई लगी ना पहेली
पल पल वह मुस्काती भली वो छबेली
सरल हृदय की होती खुशी ही सहेली

मुड़ कर न कभी देखी, पिता गृह छोड़ी
सहज गुनगुनाती बेतहासा न दौड़ी
बरबस उनको बाँहे पसारे पुकारे
उथल पुथल भारी आ गई जो बहारें

नयन जल बहे वो क्यों हुई थी परायी
चलन जगत की तुम्हें निभानी सदा ही
बिछुड़ कर सुता तो भूल जाती रवानी
बचपन छिन लेती है जवानी दिवानी

गुरु नीम समान

विधा- दुमदार दोहे

करें,प्रकाशित गुरु जहाँ, सब मिटे अंधकार ।
गुरु प्रकाश के पुंज हैं,करते वो उद्धार ।।
पथ दिखाएँ जब भटके  ।
गलत रास्ते जब अटके।

गुरु, जीवन पतवार है,उन बिन डूबे नाव ।
सच्चे दर्शक राह के , उनका सहो दबाव ।।
सेवा कर ,लो लाभ सब  ।
दर्शन पालो आप सब  ।

गुरु बिना भेदभाव के  , शिक्षा देत समान  ।
भविष्य उनके चरण में , गुरु का कर सम्मान ।।
दिखलाओ अवगुण उन्हें  ।
कभी न तुम टालो उन्हे।

गुरु समाज को सीचते , करके विद्या दान
छलके गंगा ज्ञान की , सबका हो उत्थान ।
मिटाते तमस जगत में ।
जगाते अलख हृदय में   ।।

गुरु बोल लगते कड़ुवे , वो हैं नीम समान ।
अंकुश गुरु मन पर रखे, लेलो विद्या दान ।।
विकार हटाते सबके।
पवित आचरण मन के  ।।

जीवन भटकता बिन गुरु , ज्यों पतंग बिन डोर ।
जीवन गढ़ते कुंभ सा , दक्ष अंगुली पोर ।।
शीश झुका लो चरण में  ।
आओ गुरु की शरण मे।

गुरु से विद्या सीख लो , करो ज्ञान भंडार ।
सिर उनका ऊँचा करो ,बिखरे रंग हजार ।।
जीवन में लाये खुशी  ।
मिटे विषाद, मिले  हँसी ।।

रिश्ता पावन शिष्य गुरु,  हैं सदा बरकरार
आदर जब उनको मिले ,परंपरा साकार ।।
कर्म केपरचम  लहरे ।
रंग जिन्दगी में  भरे  ।।
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Monday 23 September 2019

चाहत नदी की

विधा- दिक्पाल छंद 
221    212 2   221   2122
हिम चीर कर चली थी,पथ में नदी अकेली
राहें कठिन बहुत अब, है संग बिन सहेली
थी हिम गिरी सुता वो , मैदान अब बसेरा
अल्हड़ मना उछलती,हर साँझ से सवेरा

जब सोम रस पिलाती , सबको बहुत लुभाती
कल कल ध्वनी सुनाती,मुक्ता नदी लुटाती
अंजान गाँव बहती , बाबुल नहीं बुलाता
निश्छल हृदय भरा है ,प्रीतम बहुत सताता  

मुड़ कर न देखती है, अपनी मगन भली वो
पागल पवन मिले जो पिघली नहीं ढली वो
अरमान है मिलन का चलती रही निरंतर 
 बहती रही घायल पर साथ देते पत्थर

निश्चित डगर इरादा है अब अटल हमारा
जब साथ हो पिया का जीवन सफल हमारा
दिल में बसी रहूँ मैं चाहत यही हिया में
संगम करूँ उन्हीं से सपना वही जिया में।

दोहे (वात्सल्य रस)

कितनी हर्षित मै हुई  , पाई जब  संतान ।
तुम्हें देख कर उर भरे, बनो नेक इन्सान ।।

पाकर सुख  मातृत्व का , मै तो हुई  निहाल ।
ममत्व से लोरी भरी,   गाती चूमूँ भाल ।।

नींव नही कमजोर हो , सींच रही दिन रात  ।
उच्च इमारत तुम बनो ,यही हृदय की  बात  ।।

लिखो इबारत तुम नई , देना तुम सौगात ।
रौशन करना नाम  तुम , मिले नहीं आघात ।।

विशाल बरगद से बनो , टिकें जमीं पर पाँव ।
करूँ भरोसा,मै सदा,  दोगे सबको छाँव ।।

बेटी तू ज्योति नयन की, तुझसे चलती साँस ।
धड़कती उर रश्मि ऋचा ,तनुजा मेरी खास ।।

मोहती रश्मि जगत को , हृदय भरे अनुराग ।
ऋचा वेद सी प्रखर है , देख दिल बाग बाग ।।

बोली झरने सी मधुर , तनया तू अनमोल ।
लाती खुशियों की लहर, हृद पट जाती खोल ।।

जीती तुझको देखकर ,निश्छल सी मुस्कान ।
प्रतिमूर्ति दया त्याग की ,तुम मेरी अभिमान ।।

बेटा कोई कम नहीं , श्रेयस उसका नाम  ।
करना अब विभेद नहीं ,दोनों एक समान  ।।

Sunday 22 September 2019

दोहे ( अद्भुत रस)

आलोकित अभ्र दमके  ,  पूनम की है रात  ।
चाँद निशा से मिल रहे , करते मीठी बात  ।।

देखो आए गगन में,  तारों की बारात ।
हीरे मोती चमकते , नभ दे प्रेमाघात  ।।

दुल्हन लगती है निशा,बढा हृदय अनुराग ।
चाँद मिलन को उतरे, पीर गए सब भाग ।।

खिली खिली सी चाँदनी, हर्षित हरसिंगार ।
आई बेला मिलन की , बिछने को तैयार  ।।

कितनी इतराई उषा,नैन भरे हैं प्यार ।
बासंती चोला पहन , अरुण करे मनुहार ।।

स्वर्ण किरण के संग रवि ,लेते जब अवतार ।
मोहित हो सूरजमुखी , गई हृदय वो  हार  ।।

सूरजमुखी युगों खड़ी, रवि से बहु लगाव  ।
पी दरश से झूम रही , तृप्त दृग अहो भाग   ।।

Saturday 21 September 2019

मोक्ष


सुधाकर के घर आए दिन लड़ाई झगड़े की आवाज आती रहती ।
पड़ोसी भी उसके घर के कलह से परेशान रहते.... ।
सुधाकर अकेला रहता घर के आगे वाले
वाले हिस्से में ।पत्नी बेटा बेटी को
लेकर पीछे वाले हिस्से में ।पति पत्नी की आपस में  बनती न थी ।कारण सुबह सुबह वो सतसंग में
चल देती, बच्चे अपने आॅफीस ।सुधाकर अकेले
अकुलाता रहता...। सतसंग के बाद मीना की सखियाँ
आ जाती, .. या वो उसके घर चली जाती ।बच्चे के बड़े होने के बाद आजाद,  घुमक्ड़ और गैर जिम्मेदार स्वभाव  की वो हो गई ।
पति जब फौज से आते तो दोनों कितने खुश दिखते ।
बच्चों की पढ़ाई और सभी खर्चों के लिए , मोटी रकम।भेजता सुधाकर, या यूँ कहें अपने लिए नाम मात्र रखता,
रिटायर हुआ तो सारे फंड दे दिया पत्नी बच्चों को..।
शुरू में बड़े प्यार से रहते पूरे परिवार । परंतु मीना को
बिन बंधन जीने की आदत हो चली थी... ।
पति की जरूरतें वो नजर अंदाज करने लगी ।घर पर
पति होने के बावजूद , वो चल देती ...।
"ऐसी ही छोटी छोटी बातों ने दोनों के बीच जहर घोल डाला था ....।"
वो अक्सर पीने लगा फिर हल्ला करता । बच्चे को संग ले पत्नी मारती पिटती ।रिश्ते इतने खराब हो गए की एक ही घर  दो हिस्से में बँट गए.... ।
खाना के नामपर कुछ भी खा लेता सुधाकर ।धीरे धीरे कमजोर हो गया... ।
अक्सर भूखा रहता , फिर भी पीता ।मीना खाना बनाती बच्चों के लिए ,....।
पति को एक कटोरी भी सब्जी न देती । लोग पूछते तो कहती , लेते नहीं ।  मेहमान सखी सब खा पीकर
जाते पर पति भूखा सो रहा फिकर नहीं ...।
बच्चों और पत्नी की बेरूखी से सुधाकर ने शराब में   खुद को डूबो लिया ।  फिर चीख चीख कर सबको
कहता मेरे पैसे पर ये लोग ऐस कर रहे , अपने घर में मुझे पराया बना दिया इसने ....
"मरने से पहले सारी प्रापर्टी ट्रस्ट में दान दे दूँगा.... ।"
हल्ला सुनकर बच्चों को संग लेकर मीना ने पति की आज भी लाठी से खूब पिटाई कर डाली ।
सिर फूट गया खून बहने लगे , फिर भी दिल न पिघले ।कुछ ही घंटों में बेजान हो गया सुधाकर ।
  लोग निःशब्द  हो गए सुनकर । फिर थोड़े देर तक रोने धोने का नाटक हुआ ।
अगले पल पंडित बुलाया गया , पडोसी इकठ्ठे हुए ।सबने
मिलकर सारी तैयारी की , ल्हास  ले जाने की बात हुई तो
  "मीना और बच्चों ने कहा हरिद्वार ले जाना इन्हें.... "
  सब एक दूसरे का मुँह देखने लगे... ..
"दाने दाने तरसने वाले ... "सुधाकर का मृत शरीर ..आज मोक्ष के लिए हरिद्वार जा रहा था ..."।
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Friday 20 September 2019

दोहे (शांत रस )

उषा हर्ष से लाल है, सूर्य रश्मि विस्तार ।
सबको सुप्रभात कहूँ, नमन करें स्वीकार।

घंटी मंदिर बज रही , मन है प्रभु के द्वार ।
भक्ति भाव उर में जगे, नव्य भाव संचार

मुदित खग वृन्द बाग में , वृक्ष लदे हैं बौर ।
गुलशन भी महका रहा , छाया है नव दौर

पंछी कलरव नभ करे , खिली हुई है धूप
भोर सुहानी द्वार है , लगता दृश्य अनूप ।।

लता कुंज भी झूमते , बहती मलय बहार ।
चहक पिहू कानन रही ,कूकत वो हर बार

दृग लुभाते है किसलय,,द्वार बसंत बहार ।
कोंपल मन में फूटते , बहे प्रेम रस धार ।।

उजले नीले घन गगन , मन को लेते मोह ।
कुसमित कानन देख कर,भटके उर किस खोह ।।

मानव प्रपंच छोड़ दो , कर लो सबसे नेह ।
अभिमान न कोई करो , माटी की यह देह ।।

नि: स्वार्थ बहती नदी ,धरा की बुझी प्यास  ।
मांगे बदले में कुछ न , किसी से नहीं आस  ।।

नि: स्वार्थ नदी बहती ,धरा की बुझे प्यास  ।
बदले में मांगे कुछ न , नहीं किसी से आस  ।।

Wednesday 18 September 2019

दोहे (वीर रस )

प्रहरी हो तुम देश के, हमको है ये भान ।
करे न परवाह खुद की , हो सबके अभिमान ।।

शीश चढ़ा ते माँ के चरण, अद्भुत तुम हो वीर ।
प्रेम हृदय जब उमड़ता , नहीं छोड़ते धीर ।।

सैनिक महान पुत्र है,   करते रौशन नाम ।
सेवा करते देश का,   करे न वो आराम ।।

गर्व करते मात पिता , जब दे सुत बलिदान ।।
कतरा कतरा बहते रक्त,बढ़ जाता सम्मान ।।

छक्के छुड़ाते अरि के , करे  फक्र  हैं  देश ।
घर में घुस कर चीर दे , बदले अपने भेष ।।

सपना सैनिक नैन में, तोड़ू दुश्मन दाँत ।
डाले भारत पर नजर, फाड़ू उसकी आँत ।।

दुष्ट देश को घात दे,  कभी नहीं मंजूर ।
तिलक करूँ अरि रक्त से, उर में भरे गरूर ।।

कुर्बानी  राष्ट्र  पर  क्यों,   होती है व्यर्थ ।
साँप घरों में पालते , होता बहुत अनर्थ ।।

खट्टे हो दाँत अरि के ,,करना ऐसा काम ।
हिम्मत अरि की नष्ट हो,कर दूँ मैं नाकाम ।।

माँ की सेवा फर्ज है, सबसे पावन धर्म ।
देते उनको कष्ट जो  , सबसे बड़ा धर्म ।।