Monday 23 September 2019

चाहत नदी की

विधा- दिक्पाल छंद 
221    212 2   221   2122
हिम चीर कर चली थी,पथ में नदी अकेली
राहें कठिन बहुत अब, है संग बिन सहेली
थी हिम गिरी सुता वो , मैदान अब बसेरा
अल्हड़ मना उछलती,हर साँझ से सवेरा

जब सोम रस पिलाती , सबको बहुत लुभाती
कल कल ध्वनी सुनाती,मुक्ता नदी लुटाती
अंजान गाँव बहती , बाबुल नहीं बुलाता
निश्छल हृदय भरा है ,प्रीतम बहुत सताता  

मुड़ कर न देखती है, अपनी मगन भली वो
पागल पवन मिले जो पिघली नहीं ढली वो
अरमान है मिलन का चलती रही निरंतर 
 बहती रही घायल पर साथ देते पत्थर

निश्चित डगर इरादा है अब अटल हमारा
जब साथ हो पिया का जीवन सफल हमारा
दिल में बसी रहूँ मैं चाहत यही हिया में
संगम करूँ उन्हीं से सपना वही जिया में।

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