विषय - दर्पण/ शीशा
विधा- रोला 11/13
मद का दर्पण नैन, भ्रमित मनु कुन्द सोच है ।
सच से सब बैचेन , मृग पाने की खोज है।।
उड़ते नभ,बिन पंख, गिरेंऔधें मुँह धड़ से।
दर्पण में है सत्य, सुख जिंदगी में बरसे।।
दर्पण खोले पोल ,झूठ कभी न वो बोले ।।
सभी मुखौटे खोल, ज्ञान से खुद को तोले
खुद को भीतर झाँक, धरातल पर रख पग, लो ।
चेहरा नहीं झाँप, हृदय सुन्दर हो पगलो! ।
मन से बना जवान, मिश्री उर में घोलता ।
कहाँ छुपे हैं सत्य ,दर्पण सब सच बोलता
छुड़ा हाथ को वक्त, बढ निर्मोही रहा है।
आईना वो देख, बाल श्वेत गिन रहा है ।।
भटक रहा दिन रैन, कभी न हृदय में झांका ।
कर्म नहीं थे नेक,नियम न किसी पर आंका ।।
समय गया जब बीत , फिर क्यों मनुज पछताया ।
मन दर्पण से पूछ , झूठ खुद को बतलाया ।।
रोक न सकते उम्र, बाँट प्रीत संसार में ।
दर्पण बना चरित्र , जलो नहीं अंगार में ।।
उत्तम नेक विचार, मिले सम्मान सभी से
बाह्य रूप बेकार, कहे ये दर्पण सबसे ।।
उषा झा
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