विषय-नदी
विधा- गीत (16/14 )
नदी शुष्क, नीर -विहिन जबसे , तट भी घिरे हुए हैं ।
हवा चली ऐसी विकास की, घन अब रूठ गए हैं ।।
है जीवन दो बूँद नीर ही, मानव व्यर्थ बहाए ।
क्या पूर्वजों के श्रम बेकार , मनु क्यों वृक्ष कटाए।।
अब बरसे न बदरा धरा पर, जीवन मुँह लटकाए ।
टुकुर- टुकुर पशु पक्षी देखे, कैसे प्यास बुझाए?
उजाड़ चमन प्रकृति रोती है, मिट अस्तित्व गए हैं ।
शुष्क नदी नीर विहिन जबसे , तट भी घिरे हुए हैं ।।
जल बिन नदी धरा है बंजर , सबको भूख रुलाये ।
मनुज बुलायी खुद ही आफत , दूषित वायु सताये।।
जल-संरक्षण बेकार समझा, निज करनी भुगत रहे।
मूल्य वक्त का जिसने समझा, वो ही मुस्कुरा रहे ।।
पट्टी खोलें आँखों की क्यों, वसुधा नष्ट किए हैं ।
नदी शुष्क, जल विहिन तट पर, तट भी घिरे हुए हैं ।
धरती माता उर विह्वल है, ऋतु परिवर्तन से रोती ।
बनी धरा मरुभूमि छुपे घन,अब उपज नहीं होती ।
कंक्रीट- अट्टालिकाओ में, हरियाली कहाँ रही ?
हुआ नष्ट सौन्दर्य जगत का , नदियों में नीर नहीं ।।
खग पशु भी हो रहे हैरान, गिरि वन विजन हुए हैं ।
हवा चली ऐसी विकास की ....
प्रो उषा झा रेणु
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