Wednesday 3 March 2021

पलायन

विधा - राधे श्यामी
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 अब बंद पड़े गेह गाँह के,बस सूनी अँखिया राह तके ।
 जब खबर नहीं लेते कोई , नम नयना निशि दिन तब छलके 
था जिनपर अभिमान गाँव को, पढ लिखकर नाम बढाएगा ।
पर पता नहीं था नव पीढी ,ऐसे उनको रूलाएगा ।।

अपने शोणित से नित सींचा , सोचा  पौध लहलहाएगा ।
वो उन्नत उर्वर बीज बने , मन भी सदा खिलखिलाएगा।
 देखो आँधी आई कैसी , धूमिल सपने अब नैनों के  ।
अब लगे मरुस्थल गाँव सभी ,है दर पे झाड़ बबूलों के ।।

 सब श्वेद बहाते मिलजुल के ,बहते नेह त्याग का झरना ।।
 बोते सपने सब खेतों में,चहका करता था अँगना ।।
 हर निवाला बाँट के खाते,बस थोड़े में किया गुजारा ।
 मुट्ठी भर रुपये से बापू , उनके किस्मत सदा सँवारा ।।

मीठे पानी भरे कुँआ में , खग पंछी प्यास बुझाते थे ।
अलबेली सुन्दर नार सजी , लगते पनघट पर मेला थे।
देखो जलकुँभी से भरे कुँआ, उसमें  मेढक ही रहते हैं ।
प्रतिपल निरिह तके राही को ,उर घायल  से लगते हैं ।

आते न पुत्र भूले भटके, बाबा गम की प्याली सटके हैं ।
उजड़े खेत खलिहान सारे, घर घर अब ताले लटके हैं ।।
बीमारी लगी पलायन की,अब तो बूढा बरगद रोता ।
भूतों का डेरा गाँव बना,पगड़ंडी पर गीदड़ सोता ।।


उषा झा स्वरचित
देहरादून उत्तराखंड

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