विधा- कविता
समय तेजी से बदल रहा था
बचपन की दहलीज लांघ कब
दर पर यौवन खड़ा हुआ था
सहसा कहाँ यकीन हुआ था..
बचपन की अटखेली बीती भी नहीं
सखी संग वो मासूम अभी गुम थी,
शादी के बंधन में बांध अभिभावक
तुरंत निभा दी अपनी जिम्मेदारी थी
साहस लिए उर में फिर खड़ी हुई
खुद बनाने को अपनी दुनियाँ नई
जीवन के हर रिश्ते बहुमूल्य बनाया
बच्चों को उँचे नभ पर पहुँचाया ..
फर्ज निभाने में भूल गई खुद को
मिट गई हस्ती उलझनों में खोके
अपनी ख्वाबों व आकांक्षाओं को
बच्चों के सुंदर भविष्य सजाकर
पूरी कर ली अपनी हसरतों को
अजीब संतुष्टि है खुद को खोकर
शामिल होना बच्चों की खुशियों में
पहुँचे बेसक बच्चे नित नए उँचाई में
पर काटे न कभी अपनी जड़ों को
दे वो स्नेह व आदर माता पिता को
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