Saturday 15 December 2018

अंतस् के पीर

अंतस् के पीर दृग से बह रहे अविरल
विरह दंस से बिंध कर हृदय है घायल

किसी ने मेरा जहां इस कदर लूटा
नैनों ने अश्कों का दरिया बहाया
मुहब्बत के बेबसी में दिल है टूटा
बीच मझधार में पतवार जैसे छूटा
किस्मत मेरी रूठी मिली न मंजिल

अंतस् के पीर दृग से बह रहे ...

लाख रोकने पे भी रूका कहाँ दिल
मुहब्बत में हार ही गया उनपर दिल
जज्बातों से केवल मिलता नहीं दिल
किसी से बेइन्तहा प्यार हुआ गुनाह
वेदना ही उपहार है,मिला न दो दिल

अंतस् के पीर दृग से बह रहे ...

टूट कर चाहा फिर भी उनको न पाया
बिछुड़ कर उनसे मैंने सुख चैन गवाया
जीवन भर का गम न जाने क्यों दिया
मेरे बिखरे अरमां पे आसमां भी रोया
उनके बिन अब जीना हुआ मुश्किल

अंतस् के पीर दृग से बह रहे ...

रब न करे किसी का कभी टूटे दिल
बहे न नयनों से किसी का भी अश्क
दो तन होकर भी मिले दिल संग दिल
आकुलता से तप्त हृदय का हो मिलन
प्रीतम संग नेह दीप जलते रहे हर पल

अंतस् के पीर दृग से बह रहे अविरल
विरह दंस से बिंध कर हृदय है घायल

 

 

No comments:

Post a Comment