Sunday 3 February 2019

दहलीज के पार

विधा- -अतुकान्त

दहलीज़ 
शब्द हमेशा
चिपका रहता है
हर नारी के माथे पर..
इससे निकल कर
अपना आसमान ढूंढना
बेहद मुश्किल होता उन्हें ..
पर जीजिविषा हो तो
इतना कठिन भी नहीं !
हाँ याद है अब तक ...
किस तरह एक मेधावी
लड़की अपने पंख
खुद काटकर
सिमट के रह गई थी
अपने ही बनाए
दहलीज़ में ....!
किशोर वय में ही
ब्याह रचा देना और
बच्चों की परवरिश में
अपना अस्तित्व
नियति के हवाले कर
खुशियों को तलाशना
रूचिकर लगता..
इन्हीं के बीच उसने
खुद को समेट लिया
जैसे भूल ही गई अपनी हस्ती ..
एक बच्चे के आने के बाद भी
हाँ पढ़ाई उसने पूरी कर ली थी ।
बच्चे, परिवार, जिम्मेदारी
के बीच आकांक्षा
कभी कभी हिलोरें
मारती भी तो शांत कर देती ..
जैसे आंधी के बाद
निःशब्द हो जाता
पवन, धरा, वातावरण ।
धीरे धीरे उम्र बढ़ चली
अब जिम्मेदारी भी पूरी
होने के कगार आ ही गई ...
अब खाली दिन ..खाली रातें
पति व्यस्त... बच्चे मगन
अपनी दुनिया में ..!!
अब कुछ पाने की लालसा
कुलबुलाने लगी...उसे
अस्तित्व मिटाने की भूल से
पीड़ित वो छटपटाने लगी
लेकिन फिर ...
वही दहलीज़  रास्ता रोककर
खड़ी हो गयी ..पर कुछ पाना है तो
दहलीज के पार जाने की
हिम्मत तो जुटानी ही पड़ेगी...!!
अब गलतियाँ दुहराना उसे मंजूर नहीं..।
विज्ञान विषय की छात्रा होने के बावजूद
कलम को अपना साथी बनाया
दादा संस्कृत, पापा अंग्रेजी
चाचा हिन्दी के प्रकांड विद्वान थे
शायद खून में सृजन था ...
अनायास बढ़ चली
बिन गुरू उस राह...
भावों की अभिव्यक्ति
शब्दों की माला पिरोकर
रचने लगी सृजन
आखिर कार गुरु भी मिले ...अब
कठिन परिश्रम से नई मंजिल को
वो तलाशने निकल पड़ी ...
दहलीज़ के उस पार ...!!


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