विधा - प्रदोष छंद
कंस के आमंत्रण पर,,श्री कृष्ण मथुरा पहुँचे
जन्म भूमि का तिलक ले,जननी की मुक्ति सोचे
मथुरा में कृष्ण को एक , अति वृद्धा पे दृष्टि पड़ी
केसर, चंदन-तिलक,ओ.. पुष्प हार लेकर खड़ी
झूकी थी कमर उसकी, पीठ पर थी कुबड़ पड़ी
कंस के महल में बूढ़ी, कुब्जा नामकरण पड़ी
राजा कंस के लिए वो,,, पुष्प का हार बनाती
नित्य ही वो पूजा का..थाल, खुशी से सजाती
राह रोक इक दिन कृष्ण,,,मुस्काते हुए बोले
सुन बुढ़ी कहाँ जा रही,,कंस तो परलोक चले
रूपसी तू ये सुन ले ,,कंस अब न राजा तेरा
केसर टीका हार से,, कर आज सत्कार मेरा
मेरे स्वामी कंस सदा,,भेंट तो दुँगीं उन्हें हीं
हँसी न उड़ाओ, लगे न..मुझे तेरी बात सही
श्री कृष्ण ने जब मारी,लात..हुई कुब्जा खड़ी
अज्ञान की पट्टी खुली,,,कान्हा के फिर पग पड़ी
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