Wednesday 18 September 2019

सूखीं नदी

जल विहीन नदी अतृप्त मही,केवल रिक्त पाट है ।
विकास की ऐसी हवा चली , बादल रूठ गए हैं   ।।

दो बूँद नीर ही है जीवन, मानव व्यर्थ बहाए ।
पूर्वज की मेहनत बेकार , मनु वृक्ष क्यों कटाए ।
अब बरसे न बदरा धरा पर, जीव मुँह लटकाए ।
टुकुर टुकुर पशु पक्षी देखते, प्यास कैसे बुझाए ।
सूखीं नदी कृषक रोते , अस्तित्व लुट गए हैं ।
विकास की हवा.....

जल बिन धरा हुई जब बंजर , भूख सबको रुलाया ।
खुद ही आफत मनुज बुला दी, जलवायु बिगाड़ दिया,
जल संरक्षण फिजूल समझा, करनी मनुज भुगत रहे ।
कीमत वक्त की जो समझे , वो फिर मुस्कुरा रहे ।
पट्टी अब आँखों की खोलें , देख प्राण  घटु गए ।
विकास की हवा में ...

बनी रहे वसुधा दुल्हन सी, गुल से शृंगार करें ।
वृक्ष की कतारें लहराए, हम सभी प्रयत्न करें ।
कानन सजा फूल फल से हो,खग वृन्द मन हर्षाए ।
हरी भरी डाली किसलय से, दृग को बहुत लुभाए ।
फिर न रहे प्रदुषण, शुद्ध वायु,सबके जान बचाए ।

जल विहिन नदी अतृप्त मही ,केवल रिक्त पाट है ।
विकास की ऐसी हवा चली , बादल रूठ गए हैं ।।

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