क#...
जल, तिल-तिल नारी रही , सुरसा बनी दहेज ।
जुर्म अपनों का सहती, अश्रु बहाती सेज ।।
निबटाते पितु ब्याह कर, बेटी बनती भार।
व्यथा कहे अपनी किसे , देता है दुख मार।
अन्याय के विरुद्ध वो , कर न सके प्रतिकार ।
संग नहीं कोई खड़ा , खड़ी बीच मझधार ।।
रौनक लाती गेह में, नारी है आधार ।
सबको देती है खुशी, गम उसका संसार ।।
मुझको देवी मत कहो,बस दो थोड़ा मान ।
खुशी से न वंचित करो, नहीं करो अपमान ।।
ख #
वहशी कलि को नुँच गया , हुई लहूँ से लाल ।
लट खींच चोट बहु दिए, टूटी वो सम डाल ।।
चीख फिजाँ में गूँजती , देती उर को चीर ।
मातु छाती पीट रही , हो गई अब अधीर ।।
ढूंढ रही अपनी सुता, नहीं दिख रहीं आज ।
कलि देख हुई बावरी , गिरा उसी पे गाज ।।
बीच पथ में पड़ी रही, गुजरे मनु चुपचाप ।
बची दिल में दया नहीं,बनती कलि अभिशाप ।।
सुकूँ छीन लेते सभी, जालिम के करतूत ।
बेटी कोख जनम न ले , हो जग ऐसे पूत ।।
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