Sunday 14 March 2021

दुल्हन सी वसुन्धरा

विधा - ताटंक छंद
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25.02.2021

दुल्हन सी दिखती है वसुधा,रोम रोम को महकाया ।
चटकी कलियाँ सुरभित मधुबन ,चख पराग अलि बौराया।

रुनझुन रुनझुन बोल अमिय फिर ,कानों में मधुरस घोला ।
मीठी सी अँगडाई लेकर , नयना ने भी पट खोला ।।
शीतल चंदन मलय पवन है, उर्जित नव संचार देखो ।
मधुरिम बेला उषा काल की, मनुज नित्य दिव्य परेखो ।।
छिटक रही हजारों रश्मियाँ , दिवेश नव विहान लाया ।

हरी भरी हो अब वसुन्धरा ,नहीं भरी हो घातों से ।
रहे मुदित मन सदैव वसुधा, खिले हृदय बरसातों से।।
ऊँची ऊँची बनी मिनारे , काटे बाग बगीचे हैं ।
नाम जपे मानव विकास के ,अखियाँ अपनी मीचें हैं।।
खुद के कर्मों से आकुल नर, मेघा को जब लौटाया ।
चटकी कलियाँ ....

छुपे मेह हैं ऋतु बदल रही, सूखी ताल तलैया है ।
वृक्ष विहिन धरती नीड़ बिना,अब तो दुखी चिरैया है ।।
लाना है जग में खुशिहाली, अब वृक्ष लगाओ भाई ।।
बरसेगी बदरा श्रमजीवी, मुख हर्ष सजाओ भाई ।
मृदु स्पर्श मृदा की पाकर फिर, नूतन अंकुर पनपाया ।
दुल्हन सी दिखती है वसुधा ,रोम रोम को महकाया ।

तरु लता नवल किसलय पाये, आज वल्लरी बहक रही ।
वृक्ष बने नव पौध सींच कर ,कली कुंज में चहक रही ।।
झम झम बरसा बरसेगी जब, बीज खेत में पनपेगी।
ऋतु रानी जब जब रूठेगी, पुनि धरनी नीर बहेगी ।।
महि वृक्ष विहिन मेघा लौटी , शजर छाँव दृग तरसाया ।।
चटकी कलियाँ सुरभित मधुबन,चख पराग अलि बौराया।

दुल्हन सी दिखती है वसुधा, रोम रोम को महकाया ।

प्रो उषा झा 'रेणु'
देहरादून

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