राधा विकल, मन हो चली।
तिल तिल विरह, में वो जली।।
चितचोर ले, कर दिल गया ।
धेनू सखा, बिसरा गया ।।
टूटे सभी सपने सखा ।
छलिया छुपे नेहा दिखा।।
सूनी हुई गोकुल की गली।
राधा विकल मन हो चली ।
कान्हा छुपा, मथुरा नगर ।
दिल को चुरा, कर बेखबर ।।
प्रीतम कहीं , बिसरा गए ।
नेहा लगा, बहला गए ।।
मुरझा गई मन की कली ।
राधा विकल मन हो चली ।
छलिया खुशी,भी ले गया ।
घनश्याम क्यों रूला गया ।।
माधव कहाँ, किस का हुआ ।
सहना विरह, भारी हुआ ।।
आँखिया लड़ाई क्यों भली ?
राधा विकल मन हो चली ।।
कैसे जिए अब सांवरी ।
कितनी दुखी , है बावरी ।।
बंसी बजा ,अब मोहना ।
तुम क्यों भुला, हरि बोलना।।
केशव छले गोकुल लली ।
राधा विकल मन हो चली ।।
जीवन व्यर्थ, अब हो गए ।
मन संग वो ,लेकर गए ।।
दरशन नहीं, देते मुझे ।
तड़पा रहे , गिरधर मेरे ।।
सत प्रीत में पीड़ा मिली ।
राधा विकल मन हो चली ।
ब्रजभूमि भी, सूना पड़ा ।
मायूस सब, कोई खड़ा ।
माधव हृदय , क्यों न पढ़ा ।
छल दोष सब, ने ही मढा ।।
बस दंश पाई मनचली ।।
राथा विकल मन हो चली ।।
बेकार मन, माया में पड़ा ।
पट्टी खुली , दृग था पड़ा ।।
जा उद्धव अब ,तू ना सिखा।
झूठी नहीं ,आशा दिखा ।।
चाहत सदा सबको छली ।
राधा विकल मन हो चली ।।
उषा झा
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