Saturday 30 April 2022

ननद भाभी के रिश्ते तलवार की धार पर

व्यंग 🤪😍😃🤩
*ननद भाभी के रिश्ते तलवार की धार पर ।*
पहला दृश्य- भैया भाभी भाई दूज पर आते हैं बहन खूब ख़ातिरदारी करती है ।भैया गिफ्ट पैक पकड़ा जाते हैं ।
उनके जाते ही पैकेट खोला जाता है 
ये क्या .. हाय उसमें तो बेडशीट है ।
पति देव जोर-जोर से ठहाका लगाते हैं 
हो हो- हा हा हा ..चादर ही लपेट के दूज मना लेती बडा सुन्दर फोटा आता ।फेसबुक पर अपलोड कर देती तो न जाने कितने कमेंट आ जाते.... ?
बहन नैन में आँसू भर कर भाई को फोन कर रही है , " भैया चादर क्यों लाए ?मेरी ननद और पति मजाक उड़ा रहे हैं।" 
दूसरा दृश्य - अगले साल भैया दूज पर फिर भैया भाभी आते हैं ...।बहन खूब सारे पकवान और व्यंजन  बनाती है ।
भैया भाभी के साथ हँसी ठिठोली में दिन बीत जाते हैं ।भैया घर लौटते वक्त पैकेट पकड़ा जाते हैं ।
बहन पैकेट खोलती है । ये क्या उसमें 
दो काफी मग दो चीनी मिट्टी के डोंगे हैं?बहन गुमसुम हो कर निहार रही है ।उधर से पतिदेव आ टपके अपनी बहन के साथ  खूब मजाक उड़ाते हैं ।और पत्नी से कहते हैं ,"हाय- हाय कोरे कपड़े पहन कर दूज मनाना तेरे नसीब में नहीं  लिखा है ।"
बहन  फोन उठाती है रो रोकर भाई को कहती है ,
"भैया अगली बार  केवल मिठाई के डब्बे ही लाना ।जाते वक्त मैं भी   ड्राईफ्रूट्स के पैकेट पकड़ा दुँगी ।। हिसाब बराबर हो जाएगा ।जब तेरे जेब में बहन को  देने को वस्त्र नहीं है तो पैसे बरबाद करने से क्या फायदा? शगुन तो नये वस्त्र पहनकर दूज पर्व मनाने का है ।"
अब रिश्ते में नीम करेला वाली  कहावत पगी है....😍 ।

प्रो उषा झा रेणु 
स्वरचित देहरादून

Thursday 21 April 2022

हथकड़ी


संध्या मम्मी की हर बात मानती थी इतनी अच्छी कामवाली पाकर वह बहुत खुश थी ।आज तो वह कुछ ज्यादा ही सेवा भाव दर्शा रही थी । काम निबटाकर माँ के पैरों की मालिश करने बैठ गई क्योंकि माँ ने सुबह बता दिया था कि कल दस दिन के लिए परिवार सहित गाँव जा रही हूँ । माँ ने महीने की तनख्वाह देकर उसे विदा किया । 
थोड़ी देर बाद पापा मूवी की टिकट लेकर आए सबको कार में बिठाकर चले गए ।रात नौ बजे जब लौटे तो घर की हालात देख के हक्के बक्के रह गए ।  घर के  ताले टूटे हुए थे । कौन है घर का भेदी , सभी सोचने लगे । घर से नगदी, जेवर ,कपड़े आदि चोर लेकर चले गए।  माँ  पापा के पैरों की जमीन ही खिसक गई ।
 तत्पश्चात  पुलिस आई ।शक के आधार पर पूछताछ के लिए कामवाली संध्या को बुलाया गया । संध्या तो सिर दर्द के बहाने से आने से मना करने लगी । पुलिस ने जब आँखें तरेरी तब जाकर आने को तैयार हुई ।
 उसके पैर की पाजेब पर माँ की नजर पड़ी जिसे वो ढकने की नाकाम कोशिश कर रही थी ....।
अब संध्या हथकड़ी पहन कर पुलिस की गाड़ी में जा रही थी..।

प्रो उषा झा रेणू 
स्वरचित देहरादून 

Saturday 16 April 2022

परदेश की याद


बात उन दिनों की है जब मेरे पिताजी दरभंगा ( बिहार ) में यूनिवर्सिटी प्रोफेसर थे । हम सभी भाई बहनों को भी पापा गाँव से अपने पास ले आए थे ।जल्दी ही अच्छे स्कूल में हमारा दाख़िला करवा दिया गया । हम जिस किराये  के फ्लैट में रहते थे उस फ्लैट के दूसरे पार्ट में एक खूबसूरत आण्टी दो बेटों के साथ रहती थी । एक बेटा आठ साल का दूसरा गोद में ।
बड़े बेटे का नाम राॅबिन और छोटे बेटे का नाम राॅमी था । राॅबिन रंग का साँवला पर बहुत ही अनुशासित और राॅमी गोरा गोल -मोल लड्डू जैसा । राॅमी को गोद में लेने की लालच में, जब मुझे फुरसत मिलती उनके घर में घुस जाती कारण अंकल गाँव में रहते थे।आण्टी के पास यदा कदा ही आते थे । कोई रोक टोक भी नहीं थी, आण्टी बहुत अच्छी स्वभाव की थी । हम सब इंगलैण्ड वाली आण्टी कहकर उन्हें बुलाते थे ।
अपने जिज्ञासु स्वभाव से लाचार अक्सर आण्टी से नये नये सवाल पूछ लिया करती । ऐसे ही एक दिन मैंने आण्टी से पूछा , " आण्टी जी राॅबिन तो इंगलैण्ड में पैदा हुआ फिर क्यों काला हो गया?  राॅमी गोरा चिट्टा है जबकि आप और अंकल दोनों गोरे हैं, उसपर वो तो भारत में पैदा हुआ है।भारत के लोग तो उतने गोरे नही होते हैं । मेरे इस मासूम सवाल से आण्टी हँस पड़ी उन्होंने कहा,ये तो मुझे मालूम नहीं ईश्वर ही जाने , हो सकता है गर्भावस्था में उस समय की मेरी स्थिति अलग होगी । खैर उत्तर  मेरे पल्ले तो नहीं पड़ी , हाँ ये जरूर समझ गई कि रंग रूप ईश्वर के दिए होते हैं।
   अक्सर आण्टी दुखी हो कर कुछ- कुछ बेटे से कहकर बड़बड़ाती रहती थी । एक दिन राॅबिन खाना खा ही नहीं रहा था ।आण्टी ने जोर से डाँटते हुए कहा , "खाना नहीं खाओगे तो कैसे जीओगे ।अब वो जमाना नहीं रहा , केवल अंगूर, बादाम मक्खन ब्रेड खिलाती रहूँ । ये महँगी चीजें लेने के पैसे नहीं है मेरे पास ।"
मैं वहीं खड़ी थी मैंने तपाक से पूछ लिया, "आण्टी आप लोग फिर क्यों आ गए विदेश की सुख सुविधा छोड़कर ?
आण्टी ने बेमन से कहा , "अंकल को गाँव की याद सताने लगी ।अपने खेत खलिहाल माँ बाबा के बीच ही शेष जीवन काटने की इच्छा जो बलवती हो गई थी उनकी । अब वो गाँव में वैज्ञानिक विधि से खेती करने में जुटे हैं हमारी जरूरतों की तो उन्हें ध्यान भी नहीं है ।"
वैसे भी खेती से उतनी भी पैदावार नहीं होती ।  पूँजी से ज्यादा आमदनी तो खेती से निकल ही नहीं पाती है। जाने क्यों विदेश में उच्च पद आसीन इन्जिनियर की नौकरी छोड़ दी अंकल ने, अक्सर अड़ोस पड़ोस में इस बात की चर्चा होती रहती थी। 
वो तो भला हुआ  बच्चों को स्कूल में दाखिला कराने गई तो आण्टी के फर्राटेदार अंग्रेजी वाचन से कान्वेंट स्कूल के प्रिन्सिपल ने उन्हें अंग्रेजी विषय की शिक्षिका के लिए मना लिया ।अब आण्टी अपनी आमदनी से अपने बच्चों को अच्छी परवरिश देने की कोशिश कर रही थी  ।

हमारी काॅलोनी में उन जैसी रहन सहन , ड्रैस सेंस किसी की नहीं थी । जब भी मैं और मेरी सहेली ( मकान मालकिन की बेटी ) उनके पास बैठती तो विदेश की रहन सहन खान- पान आदि पूछती रहती । वो प्रोजेक्टर पर चलचित्र आदि दिखाती कभी खुले ट्रंक के वस्त्रों ( गाऊन , कोट , पारदर्शी साड़ियाँ देख हमारे नैन ठगे रह जाते । उन दिनों भारत में ऐसे परिधान राजा महराजा , जमीन्दार की औरतों के पास भी मौजूद नहीं होगी । तब हम सहेली आपस में बातें करती , "आण्टी तो परी जैसी जीवन...रहन सहन छोड़ आई न इसीलिए शायद उदास रहती हैं ।"
    इंगलैण्ड वाली आण्टी का नाम शांता था ।वो बहुत ही सहृदय दयालु महिला थी ।आण्टी के साथ रहते तीन चार साल हो गये थे। धीरे धीरे मेरी उनसे पारिवारिक संबंध बन गया था ।
एक उच्च घराने की पढी लिखी महिला जो बरसों  विदेश में रहकर लौटी पर घमंड और दिखावा से कोसों दूर थी। उनकी सादगी और विनम्रता से कोई भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था ? उनके गुणों से हर कोई कायल हो जाते थे ।
  अब मैं  किशोरावस्था में प्रवेश कर चूँकी थी। आण्टी की हर बात मेरे मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ रहा था ।मेरी वो आइडियल आण्टी बन गई थी
मैं होम वर्क आदि से फुरसत में रहती तो आण्टी कभी कभार मुझे अपने साथ ले जाती ।काॅलोनी में यदि कोई बीमार या परेशान होते तो वो सबसे पहले ख़ैरियत पूछने जाती ।
अपनी परेशानी पर कभी किसी से नहीं कहती ।अंकल कभी कभी बहुत दिनों पर आते ।जब आते तो बहस करनी शुरू कर देते थे।
एक बार आण्टी ने कहा था, वो तो शुरू से मन के मौजी रहे हैं ।शादी कर एक बार जो विदेश गये तो दो साल तक आए ही नहीं। आण्टी से कहते अकेले ही आ जाओ ।तंग आकर आण्टी अकेली ही विदेश  गई थी ।उस समय वो मात्र अठारह वर्ष की थी । एक दिन ये बात खुद आण्टी हँसते हुए माँ को बता रही थी ।
  विपरीत परिस्थितियों से मुकाबला करने की उनमेंअजब ताकत थी ।इसीलिए आण्टी बहुत तस्सल्ली से अंकल को जवाब देती थी ।अपनी बुद्धिमता से वो गृहस्थी की गाड़ी चला रही थी ।बच्चे बड़े हो रहे थे खर्चे बढ रहे थे।अंकल चाहे जितने भी खर्च वहन करे पर आण्टी कभी दवाब नहीं देती थी ।
सुनने में आया था कि अंकल जमिन्दार थे , भाई के संग जमीन जायदाद को  सँवारने और पुश्तैनी घर के रख रखाव में सारी पूँजी लगा रहे थे ।बरसों छूटे रिश्ते को अंकल सींचने में लगे थे  ।उन्हें लगता आण्टी तो कमा ही रही है।अपनी और बच्चों के खर्च वो आराम से चला ही रही है ।
एक बार आण्टी के आँख में अश्रु देख उनसे पूछ बैठी , "आण्टी आप अंकल को पलट के क्यों नहीं कुछ कहती ?"
आण्टी गंभीर स्वर में बोली, "माँ बाप के झगड़े से बच्चे पर बुरा असर पड़ता है और उनके विकास के मार्गअवरुद्ध हो जाते हैं।
अगले ही पल वो मुस्काकर बोली ,अरी बच्ची छोटी छोटी बातों पर मिट्टी डालना ही सही है ।"

प्रो उषा झा रेणु
स्वरचित - देहरादून
 




Thursday 14 April 2022

सूनी गोद

*सूनी  गोद* 

रानू के गर्भ से  टेस्टट्युब बच्चा जो छह महीने पहले गर्भ से निकाल लिया गया था, उसे किसी तरह दो महीने कृत्रिम साँस और फ्लूड देकर मशीन के सहारे जिन्दा रखा गया  ....। पर वह आज अंतिम साँस लेकर शिथिल पड़ गया  । 
  रानू का सफेद चेहरा पीला पड़ गया है । निचोड़े नींबू की तरह शक्ल दिख रही है ।पति की हालत भी बहुत खराब है । सास तो विक्षिप्त होकर जाने रानू को क्या- क्या सुना रही है । पोते के साथ खेलने की अधूरी ईच्छा ने उसे क्रूर बना दिया है । गुस्से में जाने क्या- क्या बोले जा रही है।गुस्से में बहू से कह रही है  ...
"शादी के बाद गोद भरना सबसे जरूरी होता है..।अपना परिवार बढाओ , "जाने कितनी बार समझायी दो से तीन बनकर वंश बढाना व वारिस देना ही बहूओं का परम कर्तव्य होता है । मेरी तो सुननी ही नही थी तुम्हें , लो और विदेश भ्रमण करो...!" 
फिर हाथ नचा नचा कर पड़ोसी को कहने लगी,
"शादी के बाद बच्चे हो जाए , परिवार पूरा हो जाये , हर औरत यही  चाहती है ।पर एक मेरी बहू है , जिसे विदेशों के भ्रमण करने का  शौक चढा था । इतनी मुश्किल से टेस्टट्यूब की मदद से इसकी गोद भरी थी । आज वह आशा भी खत्म हो गयी  है।"
 रानू कातर स्वर में बोली ,
"मम्मी जी पति की इच्छा थी भ्रमण करने की । अगर मैं उनकी बात न मानती तब भी तो कुल्टा मैं ही बनती ..!यह भी तो आपकी ही दी हुई सीख है कि, पत्नी को पति के हर फैसलों का सम्मान करना चाहिए...।
 मेरी गोद उजड़ गई क्या मुझे पीड़ा नहीं हो रही है ....?
मम्मी जी आखिर मेरी ही तो गोद सूनी  रह गई है...! ! "

*प्रो उषा झा रेणु*
   देहरादून

Wednesday 13 April 2022

बैशाखी

आयोजन - मुक्तक 
विषय - बैशाखी 

16 /15 

नवल वर्ष में ढेरों खुशियाँ, लाया वैशाखी त्योहार ।
देखो फसलों की खुशबू से, महके हलधर के घर द्वार ।
श्रद्धा और विश्वास उमडते, बजते घंटा गुरुद्वारों के ।।
बैशाखी में दान करे सब ,गंगा स्नान करे भव पार ।।

प्रो उषा झा रेणु 
स्वरचित देहरादून

Tuesday 12 April 2022

ननद भाई के रिश्ते तलवार की धार पर

व्यंग पर पहली कोशिश 😁

*ननद भाभी के रिश्ते तलवार की धार पर ।*
पहला दृश्य- भैया भाभी भाई दूज पर आते हैं बहन खूब ख़ातिरदारी करती है ।भैया गिफ्ट पैक पकड़ा जाते हैं ।
उनके जाते ही पैकेट खोला जाता है 
ये क्या .. हाय उसमें तो बेडशीट है ।
पति देव जोर जोर से ठहाके लगाते हैं 
हो हो- हाहाहा ..चादर ही लेपट के दूज मना लेती बड़ा सुन्दर फोटा आता ।
फेसबुक पर अपलोड कर देता तो न जाने कितने कमेंट आ जाते ।
बहन आँसू नैन में भर भाई को फोन कर रही है , " भैया चादर क्यों लाए 
मेरी ननद और पति मजाक उड़ा रहे हैं।" 
दूसरा दृश्य - अगले भैया दूज पर फिर भैया भाभी आते हैं ...।बहन खूब सारे 
पकवान और वयंजन  बनाती है ।
भैया भाभी के साथ हँसी ठिठोली में दिन बीत जाते हैं ।भैया घर लौटते वक्त पैकेट पकड़ा जाते हैं ।
बहन पैकेट खोलती है । ये क्या उसमें 
दो काफी मग दो चीनी मिट्टी के डोंगे बहन खुश होकर  निहार रही है ।
उधर से पतिदेव आ टपके अपनी बहन के साथ  खूब मजाक उड़ाते हैं ।और पत्नी से कहते हैं ,"हाय हाय कोरे कपड़े पहन दूज मनाना तेरे नसीब में नहीं  लिखा है ।"
बहन  फोन उठाती है रो रोकर भाई को कहती है 
"भैया अगली बार  केवल मिठाई के डब्बे ही लाना ।जाते वक्त मैं भी पैकेट पकड़ा दुँगीड्राइफ्रूट्स के।। हिसाब बराबर हो जाएगा ।जब तेरे जेब में बहन को  देने को वस्त्र नहीं है तो पैसे बरबाद करने से क्या फायदा ।सगुन तो कपड़े पहनकर दूज मनाने की है ।
अब रिश्ते में नीम करेला वाली कहावत पगी है....😍 ।

प्रो उषा झा रेणु 
स्वरचित देहरादून

Monday 11 April 2022

ममता



गोविन्द की घरवाली नैहर जा रखी थी ।वह अपने कमरे में चुपचाप लेटा था ।
रसोई से खटर- पटर की आवाज भी नहीं आ रही थी । माँ को अंदेशा हुआ , कहीं बेटा भूखा तो नहीं है।यह सोचकर उसके कलेजे में हूक सी उठी ।उसने फटाफट अपने हिस्से से और बरतन में बचे भोजन को निकाल कर थाली में परोसा और देवरानी के बेटे के हाथों  गोविन्द के कमरे में भिजवा दिया। 
देवरानी ने कहा, "जब आप भूखी रहती हैं तो गोविन्द पूछने भी नहीं आता है ।इकलौता बेटा होकर भी अलग रसोई बना रखी है ।यहाँ तक बीमारी में एक खुराक दवाई भी नहीं लाता है। फिर आप क्यों इतनी फिकर करती हैं?"
गोविन्द की माँ बोली , "क्या करूँ देखा नहीं जाता ?तुम्हीं सोचो कोई माँ भला अपनी ममता से कैसे मुक्त हो सकती है।"

प्रो उषा झा रेणु 
स्वरचित देहरादून ।

लौट नहीं पाता वक्त


मेरी शिक्षा -दीक्षा की शुरुआत और अंत दरभंगा में हुई ( के .जी .से लेकर पोस्ट ग्रेजुएट तक) बीच के दो वर्ष सिर्फ बी ए
आनर्स पूर्णियाँ से हुई ।बारहवीं की परीक्षा के बाद पापा ने घर के पास ट्रान्सफर करवा लिया था । उन्हीं दिनों मेरी शादी भी हो गई थी। 
अक्सर बचपन की सहेली याद आती रहती थी ।सोचती पंख लगाकर उड़ जाऊ सखियों के पास । खासकर परवीन की याद अक्सर आती थी ।हम दोनों साथ-साथ काॅलेज जाया करते थे। ।पढाई से लेकर गासिप तक हम  चटखारे लेकर किया करते थे ।कभी क्लास टीचर की तो कभी सीनियर्स की प्रेमकहानी या फैशन पर हम कटाक्ष  करते थे ।
हमदोंनों के घर भी आस-पास थे तो छुट्टियों में चले जाते  एक दूसरे के घर।जाति- धर्म से उठकर हमारी दोस्ती थी ।मैं ब्राह्मण और वो मुस्लिम पर इससे हमारी मित्रता में कभी कोई फर्क नहीं पड़ा ।
अक्सर हम दोनों एक दूसरे के घर पर ब्रेकफास्ट भी कर लिया करती थीं ।मैं तो परवीन के घर का बना अचार तो खाती ही थी ।उन्हीं दिनों मेरी दादी हमारे पास रहने आई ।दादी  परवीन की जात पूछने लगी पर मैं टाल गई ।वो पुराने विचारों की थी इसलिए माँ ने बताने से मना कर दिया था । एक दिन दादी मेरे पीछे ही पड़ गई ।मैंने कहा,
 "वो राजपूत है ।"
उसके बाद दादी जात-पाँत भूल गई और अक्सर परवीन को पास बिठाती और खूब प्यार करती थी।मुझे बात- बात पर कहती तुम्हारी सहेली कितनी प्यारी और निश्छल मन की है ।भगवान ने इसे फुरसत से बनाया है ।मैं जोर जोर से हँसने लगी हँसते हँसते बोली," दादी प्यारी है तभी तो हमारी दोस्ती है ।आप ही तो जात- पाँत का भेदभाव रखती हो।पता है दादी , परवीन  मुस्लिम जाति की है ।" 
यह सुनकर दादी मुझको हल्के से चपत लगाई और हँसते हुए बोली, "झूठी ...! अगले क्षण बोली कोई बात नहीं जात - पाँत ओछे विचार हैं ।हम सब भगवान की संतान हैं ।तुमने मेरी आँखें खोल दी ।"
   दो साल बीत गये मैनें अच्छे अंकों से बी ए आनर्स कम्पलीट कर लिया। फस्टक्लास तो आया ही यूनिवर्सिटी में भी अच्छी पोज़ीशन रही इसलिए पोस्ट ग्रेजुएट में मिथिला यूनिवर्सिटी में दाखिला मिल गया ।
और इस तरह उसी शहर में मुझे जाने का सुअवसर पुनः प्राप्त हुआ ।इस बार मैं  अपने पति के साथ दरभंगा मेडिकल काॅलेज के पी जी हाॅस्टल में रहती थी ।मेरे पति की हाऊससर्जन की ट्रेनिंग जो चल रही थी ।
मैं काॅलेज से देर शाम तक आती । पति की कभी दोपहर  , कभी रात , कभी चौबीस घंटों की इमर्जेन्सी ड्यूटी रहती थी। सन्डे भी हम साथ साथ कम ही गुजार पाते थे।ऐसे में सखियों से मिलने को मन करता था।पढाई और अन्य व्यस्तता के कारण मन मसोसकर रह जाती थी।खैर एक सन्डे  पति की गैर हाजिरी से तल्ख होकर  चल पड़ी एकाएक परवीन के घर ।राजपूत काॅलोनी और मौलागंज की  सड़कें जहाँ मिलती थी उस मोड़ पर रिक्शे में ठगी सी बैठी रही।काॅलोनी का नक्शा ही बदल चुका था । उन दिनों मोबाईल भी नहीं हुआ करता था ।क्या पता परवीन मिले न मिले ? उसकी शादी हुई होगी, जाने कहाँ होगी ?मन में उठते अनेक सवालों को दरकिनार करते हुए पूछते - पूछते  घर तक चली ही गई ।सोचा आण्टी से ही परवीन के बारे में पूछकर लौट जाऊँगी। और इतने में घंटी की आवाज सुनकर बाऊन्ड्री के दरवाजे खुले । दरबान से मैंने कहा , "आण्टी को  जाकर बोलो उषा झा आई है , जिसके साथ परवीन काॅलेज जाती थी ।"
कुछ ही पल में आण्टी हँसते हुए आई और बोली; "आओ- आओ उषा किस्मत अच्छी है तुमलोगों की, दोनों सखियों की मुलाकात हो जाएगी।पिछले ही हफ्ते वो दुबई  से आई है।"
 फिर मुझे परवीन के कमरे में वो ले गई ।वो चकित सी मुझे देखती रही बोली , "कैसे याद आ गई इतने सालों बाद ? कैसे आई यहाँ तक जबकि अभी तो काफी कुछ बदल गया है ।"
वो बेड पर लेट रखी थी डाक्टर ने बेड- रेस्ट लिखा था ।वो कन्सीव नहीं कर पा रही थी ।गर्भ दो तीन महीने बाद 
खुद ही अबार्शन हो जाता था ।बातों के क्रम में उसने बताया । खैर शालीनता से हम गले मिले ख़ातिर दारी भी दमदार हुई ।फिर भी मेरे मन में कहीं कोई कसक सी थी ,बचपन की चंचल अल्हड़  ,बात- बात पर जोर से ठहाके लगाने वाली वो परवीन शालीनता और गंभीरता की आड़ में छुप गई थी ।गहन विचारों में खोयी वो परवीन मेरी सहेली तो निश्चित ही नहीं थी ।मन किया बीते वर्षों के एक एक पल का हिसाब किताब ले लूँ ,परन्तु ऐसा करने से दिमाग ने मना कर दिया ।हमेशा दिल से नहीं दिमाग से काम लेना चाहिए ।वक्त के साथ सब कुछ बदल जाता है जो पल छूट जाते हैं वो ढूँढने पर भी नहीं मिलते हैं।यह सोच मैं वापस पी .जी .हाॅस्टल आ गई, दरवाजे पर मेरे पति हैरत और तल्ख निग़ाहों से मुझे घूर रहे थे क्योंकि उनसे बता भी नहीं पाई और एकाएक चल पड़ी थी परवीन से मिलने .....!!

प्रो उषा झा रेणु 
स्वरचित देहरादून

नदी की चाहत

विधा- दिक्पाल छंद 
221    212 2   221    2122 

राहें तरंगिणी पथरीली सदा मिली है ।     
शुचि शृंग से सुधा सी धारा लिए चली है। ।

हिम चीर कर चली थी,पथ में नदी अकेली ।
राहें कठिन बहुत अब, है संग बिन सहेली ।।
थी हिम गिरी सुता का , मैदान अब बसेरा ।
अल्हड़ मना उछलती,हर साँझ से सवेरा ।।
मुड़ कर न देखती है , अपनी मगन भली है ।
शुचि शृंग से सुधा सी धारा लिए चली है। 

जब सोम रस पिलाती , सबको बहुत लुभाती।
कल कल सदा  सुनाती,मुक्ता नदी लुटाती ।।
निश्छल हृदय भरा है ,प्रीतम बहुत सताता   ।
अंजान गाँव बहती,बाबुल नहीं बुलाता ।।
पागल पवन मिले जो पिघली नहीं ढली है ।
शुचि शृंग से सुधा सी धारा लिए चली है ।।

अरमान पी मिलन का चलती रही निरंतर  ।
 क्षत शैलजा  शिला दे  शुचि साथ भी अनंतर ।।
तजती पयस्वनी सुख, पी शूल ही चुभाया ।
पीड़ा घनी हिया में , दो नैन ने बहाया ।।
बस घात से सदा ही स्रोतस्विणी घुली है ।
शुचि शृंग से सुधा सी धारा लिए चली है  ।।

निश्चित डगर इरादा है अब अटल हमारा ।
जब साथ हो पिया का जीवन सफल हमारा ।।
दिल में बसी रहूँ मैं चाहत यही हिया में  ।
संगम करूँ उन्हीं से सपना वही जिया में।। 
शैवालिनी कुँआरी आशा अभी पली है ।
शुचि शृंग से सुधा सी धारा लिए चली है ।
राहें तरंगिणी पथरीली सदा मिली है ।। 

प्रो उषा झा रेणु 
   देहरादून