Monday 11 April 2022

नदी की चाहत

विधा- दिक्पाल छंद 
221    212 2   221    2122 

राहें तरंगिणी पथरीली सदा मिली है ।     
शुचि शृंग से सुधा सी धारा लिए चली है। ।

हिम चीर कर चली थी,पथ में नदी अकेली ।
राहें कठिन बहुत अब, है संग बिन सहेली ।।
थी हिम गिरी सुता का , मैदान अब बसेरा ।
अल्हड़ मना उछलती,हर साँझ से सवेरा ।।
मुड़ कर न देखती है , अपनी मगन भली है ।
शुचि शृंग से सुधा सी धारा लिए चली है। 

जब सोम रस पिलाती , सबको बहुत लुभाती।
कल कल सदा  सुनाती,मुक्ता नदी लुटाती ।।
निश्छल हृदय भरा है ,प्रीतम बहुत सताता   ।
अंजान गाँव बहती,बाबुल नहीं बुलाता ।।
पागल पवन मिले जो पिघली नहीं ढली है ।
शुचि शृंग से सुधा सी धारा लिए चली है ।।

अरमान पी मिलन का चलती रही निरंतर  ।
 क्षत शैलजा  शिला दे  शुचि साथ भी अनंतर ।।
तजती पयस्वनी सुख, पी शूल ही चुभाया ।
पीड़ा घनी हिया में , दो नैन ने बहाया ।।
बस घात से सदा ही स्रोतस्विणी घुली है ।
शुचि शृंग से सुधा सी धारा लिए चली है  ।।

निश्चित डगर इरादा है अब अटल हमारा ।
जब साथ हो पिया का जीवन सफल हमारा ।।
दिल में बसी रहूँ मैं चाहत यही हिया में  ।
संगम करूँ उन्हीं से सपना वही जिया में।। 
शैवालिनी कुँआरी आशा अभी पली है ।
शुचि शृंग से सुधा सी धारा लिए चली है ।
राहें तरंगिणी पथरीली सदा मिली है ।। 

प्रो उषा झा रेणु 
   देहरादून 

No comments:

Post a Comment