Saturday 18 August 2018

अस्तित्व

विधा-अतुकान्त

तलाश
में  खुद की..
जाने कहाँ से
कहाँ निकल गई
रास्ते बढ़ते गए
मैं चलती रही
निरंतर मंजिल की ओर
एक शाम नदी के किनारे
चलते चलते जाने कितने दूर
निकल गयी पता ही नहीं चला
नदी के उठते गिरते लहरें देख
जाने कैसी विचारों की आंधी
मेरे मन में कौंध रही थी ..
बरबस खींच के ले चली मुझे
वो सुनहरे संसार में ..
वो नन्ही सी जान जो माँ के
आँचल में दुबक रही थी
वो मासूम मस्त व बेखबर सी
दुनियाँ के भेड़ चाल से अंजान
आज नई दुनिया, नई मंजिलों
नए सपने, नए अरमानों को
हकीकत में साकार करने
अपने कदमों को जमीं पर रख
जाने कितने दूर निकल गयी
उलझनों व तकलीफों के
मकड़जाल से निकल पड़ी
राहों की दुश्वारियों से
बिना डरे अपने पथ पर
बढ़ते हुए अपनी मंजिल की ओर
जमाने के दिए ठोकरों के
परवाह किए बगैर
एक दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ
अस्तित्व की तलाश में ...

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