Saturday 1 June 2019

बबूल

विधा- दोहे

तपते रेगिस्तान में,,, मैं हूँ खड़ा बबूल  ।
जैसा भी मौसम रहे ,, सब है मुझे कबूल ।।

अंग-अंग काँटे भरे हैं ,,फिर भी न बहे नीर ।
परहित सोचूँ  हर घड़ी, सहकर खुद की पीर ।।

सावन या भादो रहे,,, करूँ न कोई शोर ।
इतनी भी नाजुक नहीं,,हो जाऊँ कमजोर ।।

जीवन चाहे दे मुझे ,,,,चाहे कितने शूल ।
फिर भी मैं देता रहूँ ,,,,पीले-पीले फूल ।।

माघ महिने सर्वप्रथम,,लगता फल वृक्ष शाख।
दस माह अंतराल पे ,,,पक जाता बैशाख ।।

जी लूँ रेत कंकड़ या ,,ताल, नदी के तीर
विरान में खड़ा रहकर ,,नहीं होता अधीर

लगाए जो बबूल, मत ,,, कर उस पर उपहास
हूँ बहुत काम का, करो,,,दिल से सब विश्वास

फूल पत्ते फल गोंद सब,,, औषधि का है खान
कण कण प्रयोग रोग में ,,,बबूल है वरदान

जख्म भरे,सब लगाओ,,, कूट कूट के छाल
दंत बनाते हैं सुदृढ़  ,,,, गुणकारी हैं डाल

लगा खेत के मेड़ पर ,,, रोक लो सब कटान
मरू में पशु का चारा ,,,  हूँ मैं उनकी जान

तुच्छ समझ न मनुज मुझे ,,सब कोई पहचान
 साक्षात निवास मुझ पे,,,करे, विष्णु भगवान

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