विषय - साँझ, संध्या, गोधूलि बेला
विधा- गीत (लावणी छंद )
मुखड़ा ...
दिन भर जलना नियति, तप्त मन, अधिरता निगाहों में ।
अगन बुझाने छिप रहा भानु, निशा के पनाहों में ।
अंतरा ...
1.
खग पशु मानव भी खोज रहे , एक छाँव प्रीति भरी ।
सुगढ़ साँझ मन हेरती आस, मधुर मिलन तृप्ति भरी ।
पंछी झुण्ड में लौटता, विटप गाय रंभा रही ।
गाता विभोर चरवाहा , रंग साँझ लुटा रही ।।
आशाओं के जब दीप जले, मन प्रिय के बाहों में ,
अगन बुझाने छिप रहा भानु ,निशा के पनाहों में ...।।
2.
मासुम कली कुम्हला जाती, धूप तन मन जलाता ।
प्यासा पंछी दिन भर भटके, छाँव कहाँ बहलाता ।
लता वृन्द भी लुंज पुँज , नव किसलय मुर्छाया ।
मजदूर पस्त जलता तन , मन बहुत कुम्हलाया ।।
गोधूलि बेला हर्षित जीव , झूम रहे राहों में ,
अगन बुझाने छिप रहा भानु , निशा के पनाहों में ।
3.
दूर कहीं मांझी जब गाता , हृदय भींग फिर जाता ।
फसल खेत में जब जल जाता, तड़प कृषक फिर जाता ।
थकती कोकिल कूक कूक , रुन्धित मन विरहण के ।
जाने अब किस देश मलय , सुषुप्त हृदय मनुज के ।
संध्या स्पर्श करे खिले हृदय , उत्सव मल्लाहों में ।
दिन भर जलना नियति, तप्त मन,अधिरता निगाहों में..
4.
तम घिर गया, अस्त दिनकर , दीये मंदिर में जले ।
भजन गूँजते कानों में , उर भक्ति में खो चले ।।
झूलन मंदिर सब गाये , मन वृन्दावन घुमता ।
रास रंग में खोया जग , प्रिये संग उर खिलता ।।
चाँद तारे नभ जगमगाते, सित चाँदनी बाँहों में ।
दिन भर जलना नियति, तप्त मन , अधिरता निगाहों में ।
अगन बुझाने छिप रहा भानु , निशा के पनाहों में ।।
उषा झा
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