Saturday 29 June 2019

खौफ में कली

विधा--मधु मालती छंद
14/14
212 से अंत

खौफ में है अब लाड़ली
रहनुमा तोड़ रहे कली

फिर वो कली मुरझा गई
पाँव तले कुचल दी गई
रो रही मातु कहाँ चली
क्यों डाल से टूटी कली
खौफ में .....

तांडव दरिन्दों का जवां
डर में जी रहे बागवां
आज फ़िजा में जहर घुली
हवस की आँधी जो चली
खौफ में...

अपनों ने किया रूसवा
निकल गए यकीं का हवा
दगा के फल वृक्ष में फली
रिश्ते में जब दाँव चली
खौफ में...

मुश्किल मनुज बनना यहाँ
दानव ही बच गया यहाँ
मासूम जब जाती छली
जमीर क्यों न उसकी हिली
खौफ में ....

महफूज हो जग में सुता
जले न अरमान की चिता
दरिन्दे  चढ़ा रहे बली
नौ महिने कोख क्यों पली
खौफ में...

कुसुमित नहीं गुल बाग में
बिखरी कली परिवार में 
बदले की आग दिल में लगी
आस के दिन क्यों कर ढ़ली

खौफ में जीती अब लाड़ली
रहनुमा तोड़ रहे हैं कली

Tuesday 25 June 2019

कुप्रथा

गीत(16/14 अंत गुरु लावणी छंद)
मुखड़ा   

कुरीति की बलि बेदी क्यों कर ,चढ़ती हर युग में नारी
किस्मत की मारी को ठोकर , मारे जग बारी बारी

अंतरा

नियति ने बीच भंवर छोड़ा,,मौन दृग से न नीर बहा
पूत संग रह गई अकेली ,, भरी जवानी में तन्हा
कामना राख सम बिखर गई,,कटे जीवन वेदना में
पीर विरह का अब जीवन भर ,,कहाँ अब स्वप्न नैनों में
अभागिनी को कौन मान दे,, अंतस जले पीर भारी
कुरीति के बलिबेदी...

रंग हीन जीवन में आशा ,,की किरण अब कैसे जले
नेह का डोर थाम जी रही ,,दिल में सुत के ख्वाब पले
पीर से पाषाण हृदय बना,, अटल चली कर्तव्य पथ में
पुत्र संग खुश माँ पल रहा  ,, वो ममता के आँचल में
हुई सफल तप सुत के सुंदर ,,भविष्य पे माँ बलिहारी
कुरीति के बली बेदी....

पुलक रही अबला बेटा को , जी भर आज निहारेगी
घोड़ी चढ़ पुकार रहा पूत , कब तक माँ तिलक करेगी
सबकी नजर से बचाने लगा ,, देती जो टीका कालें
वही माँ अपशगुन बनी चली,,,कुप्रथा गहरी चालें
हतभागी वैधव्य बुत बनी , अभागिनी ननद पुकारी
 कुरीति के बली बेदी....

देर देख बेटा आशंकित , घर में माँ को खोज रहा
अपशगुनी कैसे तिलक करे, माँ को किसी ने कहा
कुलजन संवेदन हीन बने,, हृदय पूत का व्यथित हुआ
धूँध छँटा सबके मन का जब,,सुत सबपर नाराज हुआ
पहचान माँ से,शगुन भी वो,, माँ फिर आरती उतारी
कुरीति पर वार....

शुभ अशुभ बात मन गढ़ंत ये ,, सभी बंदिशे न चलेगी
फिजूल की मनमर्जियाँ अब न,,नारी को कभी छलेगी
माँ ने शीर्ष पर पहुँचाया ,,  सबसे पहला हक उनका
हम सब की है जिम्मेदारी,, बहिष्कार करें प्रथा का
इस जग में माँ से अधिक नहीं ,, होती कोई उपकारी

कुरीति के बलि बेदी क्यों कर,,चढ़ती हर युग में नारी
किस्मत की मारी को ठोकर, मारे जग बारी बारी

Friday 21 June 2019

प्रकृति मानव और योग

जन चेतना सबकी हो प्राथमिकता
पहला काम स्वास्थय जागरूकता
अंतराष्ट्रीय योग दिवस देता संदेश
स्वस्थ तन में ही सुन्दर मन बसता

जीवन के लिए योग बेहद उपयोगी
बना देता शरीर को फिर ये निरोगी
रख लो खुद का सभी ध्यान अपना
खुशियाँ तब ही तो मनु मुट्ठी में होगी

प्रकृति संग कुछ पल नित्य बिता लो
हरी घास में नंगे पाँव रोज टहल लो
दमकेगा तन, दौड़ेगें लहू धमनियों में
अपने ही जीवन से सब नेह कर लो

प्रकृति मानव का जुड़ाव हो हमेशा
रहता शरीर रोग मुक्त तब हमेशा
स्फूर्ति तभी बनी रहेगी तन मन की
सजी रहे मुखड़ा पर हँसी हमेशा

सक्रियता से रूप यौवन बरसों न ढ़ले
थोड़ी सजगता से अवश्य मुसिबत टले
मनुज योग को दिन चर्या में करें शामिल
रूग्ण शरीर में न उर कभी तिल तिल जले

Thursday 20 June 2019

मैं हूँ चिकित्सक बबूल

बिन नीर भी उगूँ, जमीं, चाहे जैसी होय
 सुनसान में अचल मैं , हर्ष न विस्मय होय

रेगिस्तान की गर्मी ,,जला दे भू समूल
देकर छाँव राहत दूँ ,जब हो मनु व्याकूल

जीवन  भरपूर मुझमें,,खड़ा हूँ नदी तीर
 अंग अंग कंटक पड़ा,, हर लूँ सबका पीर

मैं बबूल हूँ चिकत्सक , हूँ औषधि का खान
हरियाली विहिन मरु में,पशु पक्षियों का जान

भरे जख्म गहरे लगा,, लो पत्ती का चूर्ण
 लेप करे काले घने ,, बने केश परिपूर्ण
 
नित्य लेप प्रयोग करें ,, गंजापन ठीक होय
 डाल से दातुन करो ,, रोग मुक्त दंत होय

परहित में जी रहा हूँ,,सहकर कितना शूल
उपयोगी अंग अंग, व्यंग,, करके न करो भूल

फल के चूर्ण सेवन से, हड्डी भी जुड जाय
गोंद के घोल से आँत, जख्म ठीक हो जाय

 बबूल छाल उबाल लो ,, एग्जीमा हो ठीक
फूल पके सरसोंउ तेल ,, कान दर्द हो ठीक

खड़ा रहूँ मैं मेड़ पर ,,,कब मानूँ मैं हार
भूखे पशुओं का सदा,,, बनता हूँ आहार

बाज न आए लोग कहे ,,, बबूल वृक्ष है भूत
कुछ कहे श्री हरि बसते ,,,तभी गुण है अकूत

Tuesday 18 June 2019

धूप छाँव जीवन के

विधा:- गीत (16/12 सार ललित छंद)

#मुखड़ा

जीवन के धूप छाँव में है, आस प्रभु बस आपका
विसंगतियों मे हिम्मत रहे, बेबस कृषक देश का

#अंतरा

नित्य बहाता स्वेद कृषक जब,,मेहनत रंग लाती
नम नयनों में तभी खुशी की, तरंगें झिलमिलाती
फसल लहलहाये खेतों में, खिलता पुष्प हृदय का
जीवन के धूप छाँव में है ,, आस प्रभु बस आपका

सुखद पल का एहसास लिए, निरखू विदा हो रहा
अपलक नभ को निहारे दुआ ,, उसे मानो दे रहा
आह सुता क्यूँ रो रही पीर ,,दिल चीर गया उसका
जीवन के धूप छाँव में है...

फसल कृषक के पशु नष्ट करे,,दृग से अश्रु बरसता
चले उपर वाले की लाठी ,,,मूक मनु सब देखता
किस्मत का मारा है निरखू,,,हृद में तुफान उसका
जीवन के धूप छाँव में है...

बेटी दहेज से दुखी, फसल,,लील किया जब पशु  ने
व्यथित हृद नभ निहारे,क्या खता,,आज हुई अंजाने
जीवन में शोक अशोक साथ , पैगाम था खुशी का
जीवन के धूप छाँव....

चिट्ठी मिली अफसर पूत बना, छलका नीर खुशी का
पुत्र  करे साकार स्वप्न आस ,,बंध गए निरखू के
झोली भरे ईश निर्धन की ,, कौन उन्हें समझ सका

जीवन के धूप छाँव में है,, आस प्रभु बस आपका
विसंगतियों में हिम्मत रहे ,,बेबस कृषक देश का

Monday 17 June 2019

चिकित्सक है बबूल

उगूँ बिन नीर भी जमीं  ,,, चाहे जैसी होय
नदी तालाब तीर भी,,, या सूनापन होय

मैं बबूल हूँ चिकित्सक , हूँ औषधि का खान
हरियाली विहिन मरु में,पशु पक्षियों का जान

जख्म गहरे भरे लगा,, लो पत्ती का चूर्ण
करे लेप काले घने,, बने केश परिपूर्ण
 
नित्य लेप प्रयोग करें ,, गंजेपन ठीक होय
 डाल से दातुन करो ,, रोग मुक्त दंत होय

परहित में जी रहा हूँ,,सहकर कितना शूल
उपयोगी अंग अंग, व्यंग,, करके न करो भूल

फल के चूर्ण सेवन से, हड्डी भी जुड जाय
गोंद के घोल से आँत, जख्म ठीक हो जाय

 बबूल छाल उबाल लो ,, एग्जीमा हो ठीक
पके फूल तेल सरसों  ,, कान दर्द हो ठीक

खड़ा रहूँ मैं मेड़ पर ,,,कब मानूँ मैं हार
भूखे पशुओं का सदा,,, बनता हूँ आहार

बाज न आए लोग कहे ,,, बबूल वृक्ष है भूत
कुछ कहे श्री हरि बसते ,,,तभी गुण है अकूत

Sunday 16 June 2019

हिय में रहते पितु

पिता हर परिस्थिति
से लड़ना सिखाते
बच्चों के जीवन से
दूर रखते निराशा को..

जीवन के खार को
सहो तुम मुस्कुराते
कहते गम में भी हँस ले
जीत में बदल हार को..

प्यार और ममता को
लुटाते वो जीवन भर
स्वाभिमान से जीना
सिखाते हम सबको ...

बटूवे में पैसे न भी हो
बने रहते हैं वो अमीर
परिस्थिति जैसी भी हो
एहसास होने न दे बच्चे को

जिन्हें मरणोंपरान्त भी
अमर ही मानते सभी
उनमें से आप हैं पितु
जी रहे हिय में अब भी

उन बिन रिक्त जीवन को
कौन भर पाएगा कभी
कैसे सहेंगें गम हम बच्चे
सूझे न दिल को अब भी

उषा झा  (स्वरचित)
उत्तराखंड (देहरादून)
       🌷Happy fathers day 🌷

Saturday 15 June 2019

करनी का फल

उर्वर भूमि में बीज का पनपना लाजिमी है ।परंतु कभी कभी उशर जमीं पर भी उन्नत बीज पनप जाया करते ।
शालू अपने गर्भ में पल रहे बीज को खत्म करने के सभी
हथकंड़े अपनायी परंतु बीज टस से मस नहीं हुआ ।
आखिर गर्भ में पल रहे बीज समय आने पर नन्हा पौध बन दुनियां में कदम रख ही दिया ।
शालू दर बदर हास्पिटल का चक्कर लगा रही है सब डा.ने इलाज में हाथ खड़ा कर दिया ।सभी डा. ने कहा बच्चे का दिमाग अविकसित रह गया है ।बड़ा होकर भी
बच्चा बना रहेगा ।ये सुनकर उसकी सिसकी छुट गई ।
शालू को अपनी करनी पर बहुत पछतावा हो रहा था ।
  उसे याद अपने उच्च महत्वाकांक्षा में अपने गर्भ में पल रहे बीज को खत्म करने के लिए क्या क्या उपाय की ।
अधिक धन जोड़ कर गृहस्थी मजबूत करने की चाह में
जीवन भर का गम मिल गया ।
  शायद ये कहावत चरितार्थ हो रही ..." मारने वाले से बचाने वाले शक्तिशाली होते..।"
"...साथ ही करनी का फल तो भोगनी ही पड़ती ।"

उषा झा (स्वरचित)
देहरादून (उत्तराखंड़)

Friday 14 June 2019

जीने की कला बबूल में

विधा-  विधाता छंद
16/14

हर परिस्थिति में अनुकूल ,,रहो बबूल ये सिखाते
पूछ रूप की दो दिन का,,गुण उत्तम हमें बताते

काँटे चुभो दे जब दामन ,,दर्द फुर्र से उड़ जाते
देते हैं दंश जो अपने,,मुश्किल से ही सह पाते
जब हो कलेजे टुकड़े ,मनु देखो वृक्ष बबूल को
छाया नेह की लुटाये , मरू में बबूल पथिक को
कंटकों के बीच रहते,,,हर वक्त वो मुस्कुराते
हर परिस्थिति....

लोग कहे बबूल के वृक्ष,, तो भूत प्रेत ही रहते
वृक्ष देव स्वरूप कुछ कहे, विष्णु जी निवास करते
खुद में मस्त बिन परवाह,, रेगिस्तान में झूमता
सावन में अनुरंजित हृद, पीत पुष्प फल से लदता
फूल छाल फल डाल सभी,,औषधिय में काम आते
पूछ रूप की दो .....

सुख -दुख आँख मिचौली है,हार न मान विसंगति से
रेत कंकड़ में बिन नीर,, भी जी ले बबूल जैसे
दुष्ट घाव दे हिय को,,,,शूल बन रक्षा कर अपना
मिले क्रोध पर हमें विजय ,, सार तत्व मन में रखना
सूनसान में शान्त खड़ा,जीवन की कला सिखाते
हर परिस्थिति...

मतलब से लोग रखें हैं,, अब केवल रिश्ते सबसे
उपहास उड़ाते जो भी,, स्वार्थ में आगे सबसे
बबूल बोने वाले का ,, जो लोग खिल्ली उड़ाते
आखों की पट्टी खुलती,औषधिय का खान पाते
अंग अंग दे सबको वो,,,परमार्थ में मिट जाते

हर परिस्थिति में अनुकूल,रहो ये बबूल सिखाते
पूछ रूप की दो दिन का,, गुण उत्तम हमें बताते

Wednesday 12 June 2019

नेह की छतरी

नेह की छतरी तान अचल नील गगन
सिन्दुरी उषा भी सकुचाई करे नमन

सदियों से अडिग उन्मुक्त गगन
अपने सुख दुख सारे कर दफन
प्रकृति के उत्थान पतन में खड़ा
अनगिनत राज मन में कर वरण
सिन्दुरी उषा भी सकुचाई....

सप्तरथ आरूढ़ रवि उतरे गगन
आलोकित अभ्र में पंछि विचरण
गूंजे ऋचा भोर का हुआ आगमन
ऋषी मुनि कर रहे कर जोर वंदन
नेह के छतरी तान...

चमके वितान पे असंख्य तारागण
लगे हजारों हीरे मोती हो उनपे जड़ा
इन्द्र अप्सरा के संग निकले विचरण
शुभ्र चांदनी में करे शशि निशा मिलन
नेह की छतरी तान ....

दे स्वर्ण रूप मार्तण्ड के किरण वाण
केशव के पिताम्बर सा रंग गया  मन
सुघर सांझ जब आती मन हुआ चन्दन
उतरा अंबर धरा का करने को आलंबन
सिन्दुरी उषा भी सकुचाई...

श्यामल रूप सलोना लागे छाए घन
शिखर के शीश नेह से चूमे आसमान
सप्तरंगी इन्द्रधनुष छाया लगे सुहावन
राग अनुराग गूँजे चहूँ दिस बरसे बूंदन

नेह की छतरी तान अचल नील गगन
सिन्दुरी उषा भी सकुचाई करे नमन

 

Sunday 9 June 2019

बोल मिश्री बोल

विधा- आधार छंद
16/11 (गाल)

लिपटे शब्द हो चाशनी में , हृदय सभी ले जीत
भाव भरे मधुरिम लफ्जों में, जग बन जाए मीत

नाद सृष्टि में है निहित यही,,, शब्द ब्रह्म है ओम
कटु बोल कोप के हैं कारण,, मधु बोल झरे सोम
शब्द शब्द के योग से बने  ,, सभी धर्म के ग्रंथ
अलग अलग है रूप शब्द के,,सबके अनेक अर्थ
कुटिल बोल से द्वेष बढ़े हैं ,,मिष्टी शब्द से प्रीत
भाव भरो मधुरिम....

मिश्री बोल जोड़ते दिलों को,,विष वाणी दे पीर
कड़वी भाषा व्यथित करे जब ,,नयन भरे तब नीर
मधुर वाणी शीतल छाँव दे ,,हृदय खिले फिर फूल
दुख हो या सुख सब मौसम में, मनुज रहे अनुकूल
घोल वचन में मिठास गाते,, रहें सब प्रेम गीत
भाव भरे हो मधुरिम..

शब्द शारदा की वीणा का , है अनुपम उपहार
मुरली की धुन में मुखरित है ,, शब्द प्रेम श्रृंगार
नाप तौल कर बोल मनुज यूँ ,निकले न भूल चूक
अज्ञान की पट्टी बाँध, कभी  ,, बैठ न बनकर मूक
घायल करे अंतर्मन,शब्द ,,   शस्त्र लगते प्रतीत
बहे ज्ञान गंगा वाणी में,,बदले जग की रीत

लिपटे शब्द हो चाशनी में, हृदय सभी ले जीत
भाव भरे मधुरिम लफ्जों में, जग बन जाए मीत

Saturday 8 June 2019

अप्पन गाम

भाषा-- मैथिली

रहि रहि मोन पडैये
अप्पन मिथिला गाम
मिठगर बोली सुनैय
लेल कान ललाबैये

ओ आमक गाछी मे
 टिकोला चुननाय
आ सखी संग अंगने अंगने
छीछयौनाय सब मन परैये

ओ आमक बाड़ी मे
ओगरहवाक मचान
पर नून ब्लेडक संग
टिकोला क पतासी खेनाय
ओकरे घैयला सँ पानि पिनाय
सब किछु मन पडैया

सखी संग नैना में
गामक गली गली
दौडनाय मन पडैये
अंगने अंगने नवकनिया
 देखऽक उल्लास
माछक झोर,माझक चोखा
 बाड़ी क साग तिलोकडक
तरूआ लेल जी ललचैयये
अम्मट के स्वाद आब ओ कहाँ
गामक रस आब ओ कहाँ

पोखरी मे लऽ केराक डोर
 तैरय में सखी संग होड़
खेत खलिहानक
सरसों तिसीक फूल
देखि मन केतक
लुभा जायत छल
आययौ मन तरसैये

माटिक महादेव
दसमी में बनाबऽ
के कम्पीटीशन
कार्तिक मास मे
तुलसी लग दी
अनगिनत जरेनाय
समृति पटल पर
एखनौ सब किछु
 विद्यमान अछि

सामाचकेबाक गीत
गुनगुनाबऽक काल
दूई बूँद अश्रु आखिं सऽ
सब साल ढलकि जाययै

अप्पन संस्कार अक्षुण
एखनौ धरि राखनै छी
मुदा बच्चा सब के वो
पावैनक अनुराग
मूलभूत संस्कृति सऽ 
परिचय देबाक अकथ
प्रयत्न में समय बितैयये

उषा झा  (स्वरचित)
उत्तराखंड  (देहरादून)




 

Wednesday 5 June 2019

कुपित पर्यावरण

दूषित न हो पर्यावरण  ,लगा मनु वृक्ष रोज ।
लील गए कंक्रीट वन, गया धरा का ओज   ।।

झील नदी  सूखीं सभी,,, वृक्ष कुपित बिन वारि ।
घन गरज के लौट गए,,,मनवा है बेजार  ।।

जब बारिश होगी नहीं, जग में पड़े अकाल ।
खग पशु सब प्यास से, होते हैं बेहाल ।।

जब धरा से पेड़ कटे ,दरक गए फिर नींव ।
क्रुद्ध हैं सूरज इतने ,,जल रहे सभी जीव  ।।

पशु पक्षी बिन छाँव के,,बढ़ी फ्लेट की भीड़ ।
पंछी के झुण्ड भटके ,बने कहाँ अब नीड़  ।।

सुनो प्रकृति की चेतावनी, करते न व्यर्थ न नीर ।
जीव तरस जल बिन रहे ,खग, पशु हुए अधीर  ।।

डूब गए सब, स्वार्थ में, जग का हुआ विनाश ।
परिवर्तन जलवायु का, खतरा न बने काश ।।

कार्बन डाईक्साईड ,हो न खपत विशेष  ।
होगी फिर सृष्टि विलुप्त ,बचे न जीवन शेष ।।

जहरीली गैस घुलता ,गया मनुज के सांस  ।
है कमी आँक्सीजन की ,मृत्यु मुख के पास ।।

विकास के मोह में करे,वृक्ष काट कर भूल ।
होता प्राकृतिक आपदा ,ये ही कारण मूल  ।।

विलुप्त सौन्दर्य महि के ,बदले हैं जलवायु  ।
प्रकृति लील न कर कोई,लगा तरु सब शतायु ।।

रहे सुन्दर धरा तभी ,,  जल का करो बचाव ।
लगा पौधे यत्र तत्र ,, मिले सभी को छाँव ।।

पेड़ देता शुद्ध हवा ,,काट न वृक्ष अब क्रूर ।
प्रचुरता आँक्सीजन की , रखे रोग से दूर  ।।

हरी भरी वसुन्धरा में ,, गा रही नदी गीत  ।
पर्वत व कानन कुसुमित ,हृदय लिए हैं जीत ।।

परजीवी(मशक)

विधा - कविता

ओ परजीवी तुम हो बडें नटखट
कान में मेरे करते रहते खट पट
जहाँ भी जाती आ जाते झटपट

छुपा था मच्छर हरे भरे कानन में
मखमली घास में गुम थी सोच में
जाने कहाँ से आ गया घात करने
देख भी नहीं पाई छुप गया वस्र में
काट के उड़ जाते हरे घासों में फट
जहाँ भी जाती आ जाते तुम झटपट

मुग्ध मन,तृप्त नयन थे हरी भरी कूँज में
ढूँढ़ रहे थे खुद को इस व्यस्त जहांन में
निखट्टू मच्छर ने कर दिया मुझे परेशान
आ गई मैं अपने कुन्बे में उल्टे पाँव लौट
हुआ खिन्न मन चुभाया इतना दाँत जो दुष्ट
जहाँ भी जाती आ जाते हो तुम झटपट

खट्टा मन लेकर फिर चली गयी बिस्तर में
अधखूली पलके खोयी रंग भरे सपनों में
क्षण में नींद उचट गई भन भन के गूँज से
खून पी कर मच्छर तो मस्त गुनगुनाने में
क्रोध की ज्वाला में बोल रही मैं अंटशंट
जहाँ भी जाती आ जाते हो तुम झटपट

बिमार न हो कोई मन लीन आशंका में
लगी डी डी टी का छिड़काव कराने में
चिकनगुनियां टायफाइड टांग न पसारे
आस पास की सफाई करा रही थी झट
ओ परजीवी हो जाओ आज समूल नष्ट
जहाँ भी जाती आ जाते हो तुम झटपट

ओ परजीवी तुम हो बड़े नटखट
कान में मेरे करते रहते खट पट

रेत सी जिन्दगी

विधा--गीत

रेत  जिन्दगी भी फिसल गई
नदियाँ के तीर मैं तन्हा रह गई

पत्थरों व लहरों के द्वन्द में
बनता गया मेरा अस्तित्व
बरसों सागर के थेपेड़ो में
तलाश रही अपने मनमीत
पाँव तले सब क्यों गए  रौंद
दर्द मेरी रूह को तड़पा गई
तृष्कृत होके भी अचल रह गई
नदियाँ के तीर मैं तन्हा रह गई  ....

बेजान समझ लोग अक्सर
मुट्ठी में कैद करना चाहे मुझे
पर फिसल जाती बिखर कर
आस दिलाते, छू लेते स्नेह से
कोई लिख लेते नाम मुझ पर
तृषित नयन मेरे मुग्ध हो गए
चीर मिलन पर अधूरी रह गई
नदियाँ के तीर मैं तन्हा रह गई  ....

ख्वाहिशों के मेरे भी लगते पर
प्रीत का चोखा रंग चढ़े मरु में
सोने सा मैं जाऊँ निखर निखर
अरूणिमा उषा की मन चुरा गई
मलय मदहोश कर उड़ा ले गए
क्षण में पर बिखर कर रह गई
रेत सी जिन्दगी भी फिसल गई..
 
कुन्दन बनूँ कर्म की भट्ठी तपकर 
बना दूँ घर ईंट गारे संग मिलकर
चाँद सितारे से जगमग करे छौना
सजा दूँ मैं घर संसार कोना कोना
नकाब उतारना लोगों का भा गई
भूल उनकी सदा माफ कर गई
रेत सी जिन्दगी भी फिसल गई
नदियाँ के तीर मैं तन्हा रह गई...

 

Sunday 2 June 2019

अनमोल सीख

आसमां मद में चूर ताने सीना
दिए जो प्रकृति नौ ग्रह नगीना ।
रवि रश्मि सजाते हैं मेरे अंगना
मेरेअस्तित्व के आगे बहे पसीना   

सारे संसार का छतरी कहलाता
नीले बादल मेरा रूप निखराता
सूरज चंदा तारे रहते मेरी पनाह में
इन्द्रधनुष के रंग मन को लुभाता

देखकर पंछियों के जोड़े उड़ते
आसमान के हृदय बहु पिघलते
इतने निधियों को पाके वो उदास
बरबस हीं उनके दृग से बूंदे बरसते

बिन साथी जिया न जाता किसी से
रोज शाम मिलने चले आता धरा से
चकित कर जाता आसमां प्रकृति को
क्षितिज मुग्ध मिलन के बिहंगम दृश्यों से ..।

भ्रम ही सही मिले दो पल की खुशी
बादल की अटखेली लगे सबसे हँसी
घन गर्जन से आगोश में सहमी निशा
चमकते हैं वितान पर रवि और शशि

तरसी धरणी बिन नीर देखे कातर दृग से
भेज दे बादल को बूँदें लेकर जल्दी से
अंतहीन आकाश में जड़ चेतन समाया
पाके ऊँचाई दिग्भ्रमित न हो मनु कर्म से

जीवन की अनमोल सीख मिले व्योम से

Saturday 1 June 2019

बबूल

विधा- दोहे

तपते रेगिस्तान में,,, मैं हूँ खड़ा बबूल  ।
जैसा भी मौसम रहे ,, सब है मुझे कबूल ।।

अंग-अंग काँटे भरे हैं ,,फिर भी न बहे नीर ।
परहित सोचूँ  हर घड़ी, सहकर खुद की पीर ।।

सावन या भादो रहे,,, करूँ न कोई शोर ।
इतनी भी नाजुक नहीं,,हो जाऊँ कमजोर ।।

जीवन चाहे दे मुझे ,,,,चाहे कितने शूल ।
फिर भी मैं देता रहूँ ,,,,पीले-पीले फूल ।।

माघ महिने सर्वप्रथम,,लगता फल वृक्ष शाख।
दस माह अंतराल पे ,,,पक जाता बैशाख ।।

जी लूँ रेत कंकड़ या ,,ताल, नदी के तीर
विरान में खड़ा रहकर ,,नहीं होता अधीर

लगाए जो बबूल, मत ,,, कर उस पर उपहास
हूँ बहुत काम का, करो,,,दिल से सब विश्वास

फूल पत्ते फल गोंद सब,,, औषधि का है खान
कण कण प्रयोग रोग में ,,,बबूल है वरदान

जख्म भरे,सब लगाओ,,, कूट कूट के छाल
दंत बनाते हैं सुदृढ़  ,,,, गुणकारी हैं डाल

लगा खेत के मेड़ पर ,,, रोक लो सब कटान
मरू में पशु का चारा ,,,  हूँ मैं उनकी जान

तुच्छ समझ न मनुज मुझे ,,सब कोई पहचान
 साक्षात निवास मुझ पे,,,करे, विष्णु भगवान