Wednesday 31 October 2018

मतलबी

काफिया-आ

गम देकर वो सारी खुशियाँ चुरा ले गयी
बेदर्दी सनम कर हदें पार भरोसा ले गयी

एतवार करना किसी पर बहुत मुश्किल
बदनुमा दाग चेहरे पे चेहरा छुपा ले गयी

किसी के दिल की खोट दिखती कहाँ है
औकात वो असलियत के दिखा ले गयी

हकीकत यही बिकती है सब कुछ बाजार में 
जेब जिसके गरम हो जमीर भी बिका ले गयी

विश्वास नहीं है आज किसी को किसी पे ही
खाते हैं सब धोखा मुहब्बत के वफा ले गयी

प्रियतम के प्यार में पागल गुजर गए दर बदर
उनके गमों  ने नैनों में अश्रु धार बसा ले गयी

मुहब्बत का दौर भी अजीबो गरीब है साहिब
नशा का ये आलम सारे सुकून सजा ले गयी

किसी पे एतवार करना अब बहुत है मुश्किल
औकात वो अपने ही हस्ती का मिटा ले गयी

सच और झूठ की पहचान करना कठिन काम
मतलब परस्त जहां में सच्ची प्रीत लुटा ले गयी

Monday 29 October 2018

बावरा मन

विधा- रूपमाला

रूप देख अलबेली की  , गुम हो रहे होश   ।   1.
चाल मस्त मृगनयनी के, कर रही मदहोश ।।
लट बिखरे हैं नितम्ब तक ,रूप लगे अनुपम ।
चाँद सा सूरत अप्रतिम, चितवन भरे प्रेम  ।।

लाज से बहुत सकुचाती , भींगती हो ओस   ।   2.
छवि बसती अब नैनों में, मिलन की है आस  ।।
मन सुमन बरसा रहे हैं , स्वागत करे नैन  ।
राह निहारूँ अब निश दिन  , हिया है बैचेन  ।।

ये घटा घनघोर आई, बावरा मन आज      ।      3.
बह रही शीतल बयरिया,बज रहा दिल  साज ।।
याद में तरसी पिया की , मन है अब उदास  ।
मीठी मिलन की चाह ने , जगाया है प्यास  ।।

ख्वाब में है कौन आया, कर रही महसूस   ।  3.
जनम की संगिनी तेरी, कर न तू मायूस     ।
बने जीवन सफल मेरा, रख अपने पनाह   ।
बनूँ साजन अर्धांगिनी , यही दिल में चाह   ।

आसरा

विधा- हरिगीतिका

हे अम्बिके मैं बेसहारा ,कौन मुझ पे ध्यान दे    । 1.
दरबार में आई तिहारे , मात ममता दान दे       ।
दे दो भवानी तू सहारा,  कर कृपा मम तार तू   ।
अज्ञानता की तिमिर उर में ,कर मेरा उद्धार तू   ।

तेरी दया से लंगड़े चले , शक्ति भरमार है तुझे    ।
है निवास धुर्तों की बस्ती , ले लो शरण में मुझे   ।
खाल में है छुपा भेड़िया , परख सकूँ दृष्टि  दो   ।
पापियों से जगत भरा है ,कर संघार उबार दो   ।

जीने न दे लोग निर्बलों को, जिन्दगी असहाय है ।
है अधर्म का ही बोलबाला, पहना सब नकाब है ।
छल प्रपंच के आवरण में क्यों,फिर सच आज ढक गया । अधंकार संसार से मिटाकर ,मातेश्वरी कर  दया ।

करबद्ध मैं कर रही विनती ,अब तो दर्शन दीजिए ।
भव बंधनों में पड़े मन को , माँ मुक्ति दे दीजिए    ।
हूँ जग में अबला अकेली, पुकार तो सुन लीजिए   ।
आप ही मातु पितु मेरे हो ,आसरा दे दीजिए   ।

 

 

Thursday 25 October 2018

जल संरक्षण

विधा- कुण्डलिया

 प्यासा है जग नीर बिन , बहा नीर न इन्सान
बिन नीर नहीं जिन्दगी , धारण कर यह ज्ञान 

धारण कर यह ज्ञान  , समस्या जग की सुलझे
अगर चाहिए  नीर  , बचा जल उलझन उलझे

 भरे झील तालाब , देना खग पशु  दिलासा 

  खर्च हो बूँद बूँद,  नहीं हो कोई  प्यासा

धरती विकल अब वृक्ष बिन , मानव है नादान        2.      
बिना वृक्ष ऋतु बदल ता  , वन बहुत मूल्यवान

वन बहुत मूल्यवान ,पहुँचा न नुकसान इसे ।।
काट नहीं अब वृक्ष , चेतावनी मान इसे

सभी लगाना पेड़ , प्रकृति सम्मोहित रहती ।
अधर सजे मुस्कान , रहे हरी भरी  धरती

 सूना वन लग रहा है , हरियाली है लुप्त        3.
होते शिकार नित्य पशु , अनगिन जंतु विलुप्त ।

अनगिन जंतु विलुप्त  ,मनुज आखेट  लुभाते
मारे चीता शेर, खाल बेच धन कमाते ।।

 असुरक्षित वन जीव ,वनों की हानि दूना
 संरक्षण हो सृष्टि , बिना पौधे वन सूना  ।।

Thursday 18 October 2018

मुरादें

विधा-ग़ज़ल
रदीफ -कब तलक

धीरज ने दामन छोड़ा खुशियाँ मिलेगी कब तलक
गमों से परेशान जिन्दगी आस दिलाएगी कब तलक

चाहत थी फूलों भरी राहों से जिन्दगी गुजरती रहे
लहूलुहान हुए पथ काँटे पग चुभाएगी कब तलक

अरमां की झोली किस्मत वालों की ही भरी रहती
न जाने अधूरी मुरादें हमको तरसाएगी कब तलक

इन्सान तो ईश्वर के कठपुतली वो जैसा चाहे वैसा करते
विश्वास की डोर आखिर टूटने से बचाएगी कब तलक

जितने ही ले वो इम्तहान एक न एक दिन आएगी बहार
पतझड़ के मौसम आकर बार बार रूलाएगी कब तलक

उषा झा  स्वरचित)
उत्तराखंड देहरादून)

Monday 15 October 2018

इल्जाम (गजल)

के रदीफ़- होने तक
काफ़िया - आम

इन्तजार में उनके बैठी रही शाम होने तक
 निभाया न वो वादा किस्सा तमाम होने तक

दिल से खेलने की बाजीगरी भी एक कला है
कातिल अदा पता न चलता नाकाम होने तक    

किसी पे हँसते हँसते आशिक होते हैं कुर्बान
लुटा देते मुहब्बत में खुद ही बदनाम होने तक

प्यार  जिसने भी किया नहीं करते हैं अविश्वास
फूल मिले या काँटे परवाह नहीं अंजाम होने तक

किस्मत का लिखा कहाँ मिटाया जा सकता है
दर्द मिले या सुकून फना होते पैमान होने तक

किस्त दर किस्त चुका दिया एहसास की कीमत
बिखर के रह गया रूह इश्क के सरेआम होने तक

सच चाहे जो भी हो हकीकत यही वो हम संग नहीं
मेरी दुनिया ही टूट कर बिखर गई गुमनाम होने तक

जाने कब किस पे दिल आ जाए इश्क होता है मजबूर
रोके न रूके दिल उन पे हार ही जाता इल्जाम होने तक

दिल बड़ी सस्ती चीज है साहेब टुटे खिलौने छोड़ जाते
बड़ी बेरहमी से इसे कुचल देते हैं कत्लेआम होने तक

 

उषा झा (स्वरचित)
उत्तराखंड (देहरादून)

Sunday 14 October 2018

छाँव प्रीत की

विधा- रूपमाला छंद
**********************************
जबसे तुम छोड़ गए प्रिये  , दृग करे बरसात
अनाथ कर दिए हो प्रियवर , लग गया आघात

हम खड़े उसी राहों पर , गए जहाँ तुम छोड़
खुद से मुझे जुदा करके , चले गए मुख मोड़

क्या मिला है जुदा होकर, खेल गए तू दाँव  
डूब रही मेरी किस्ती ,  छीन ली जो छाँव

नम नयनों से देख रही,क्यों दिए मुझे पीर
द्रवित हो तुम्हें पूछ रही ,  क्या मेरा कसूर

 हम तुम दोनों संग चले , छोड़ गए अब साथ
 कर लिया तुमने किनारा  ,बढ़ाया ना हाथ

झुलस रही विरह वेदना ,करूँ तुझसे  प्यार
छाँव में रहती प्रीत की,  मिल जाता करार

देख घटा घनघोर आई, बावरा मन आज      
बह रही शीतल बयारिया ,बज रही दिल साज

पिया की याद में तरसी , मन है अब उदास
मीठी मिलन की चाह ने,  जगाया है प्यास

ख्वाब में है कौन आया , कर रही महशूस     
जनम की संगिनी तेरी, कर न तू मायूस

बने जीवन सफल मेरा , रख अपने पनाह 
बनूँ साजन अर्धांगिनी , यही दिल में चाह

Saturday 13 October 2018

विदाई

विधा-कविता

बेटी बन कोख में जब आई थी
जीवन साकार हुआ था मेरा
आंचल में चाँद का टुकड़ा आया
देख कर सबका मन हर्षाया
 ममता के फूल वो खिला कर
मेरे घर आंगन को महकाया...
मिल गया मन चाहा खिलौना 
जिसको पाकर मेरी दुनिया
 उन तक ही सिमट गई थी ...

धीरे धीरे जाने कब समय के साथ
वो बढ़ती ही चली जा रही थी
तनिक भी आभास नहीं लगा था
बिटिया बड़ी हुई ,कब आएगी बारात
मित्रों, रिश्तेदारों ने जब आगाह किया
उस दिन ही आँखों से नींद उड़ गई थी ..
दिल के टुकड़ा को कैसे विदा करूँगी
सोच सोच के मन ही मन मैं व्यथित थी ...

दस्तूर तो सबको निभाना ही पड़ता
राजा भी बेटी को घर कहाँ रख पाता
बिटिया ही दोनों घरों की नेह दीप है
सोच के मन को ढ़ाढ़स बंधाया था
जीवन में उसकी खुशियाँ भरनी है
सपनों के राजकुमार सा वर ढूंढना है
 मन ने निश्चय उस दिन कर लिया था..

आ गई हर्ष, उन्माद, विषाद की बेला
दरवाजे पे मेरे लग गया अब देखो मेला
वेद ऋचाओं के मंत्रों से आंगन हर्षाया
सभी मिलकर दे रही थी मुझे बधाईयाँ
बेटी दामाद के मुख चुम मैं ली बलाईयाँ
कन्या दान पूण्य से धन्य हुआ जीवन मेरा
मन के संतोष ने कुछ पल संताप मिटाया

 लाड़ली की विदाई का वो पल आया
 मेरा  कलेजा छलनी हुआ जा रहा था
खुशियाँ सारी न जाने क्यों विरह में डूबी
हुई परायी मेरी बन्नो सह नहीं पा रही थी
रोते नयन से बिटिया को गले लगाकर
हृदय से सुखी संसार का आशीष दे रही थी
बाबूल से ले लो दुआ देखो रोए जा रहे हैं !
दोनों कुल की लाज रखना ! समझा रही थी
हमारी आँखों की ज्योति हम से दूर हो रही थी... ।








Friday 12 October 2018

भक्षक

विधा  बरवै छंद

गर्भपात करवाया ,बेटी भार   ।     1.
देख दुर्दशा ऐसी  , उर  लाचार  ।
तार तार इज्जत से ,वो गई हार  ।
हुआ जमाना वहसी , है बेकार    ।

जब माली ही उजाड़, दे स्वयं बाग   ।
खिले कैसे कली.. हो, दिल में दाग    ।
रक्षक बन जाए भक्षक, सुता अधीर   । 
उपेक्षित अस्तित्व से , बहाती नीर   ।

अब न सहेगी बिटिया, ओछी सोच  ।     3.
करे स्वयं  की रक्षा, आंसू  पोंछ ।
थोपे अपनी मर्जी, कर प्रतिकार।
तमस भरा जीवन , हो उजियार  ।

बस इतनी सी चाहत, दे सब मान    ।   4.
हो न भेदभाव मिले , अब पहचान     ।
नभ में  विचरण करे, बन परवाज   ।
तारे तोड़, करेगी , वो आगाज     ।

     

नारी ममता की छाँव

नारी जब रहती हर्षित
नाचता गाता उसका मन
पंखों में आ जाती जान
आसमां में भरती उड़ान   ।।

फूटता नए अंकुर नारी के मन
सिंचित करे कोई उसका जीवन
फूलों सी वो बागों में खिलती
बन के खुशबू फिजां में महकती ।।

निश्छल प्रीत से नारी निखरती
दिल में उमंगो की लहरें मचलती
पंछियों की तरह वो चहकती
झरणों के मानिंद मीठी धुन में गाती ।।

 कोई उसे दे दे थोड़ी सी इज्जत
 मन का गागर छलक ही जाता 
 निकाल के रख देती वो कलेजा
स्नेह की बूँदें जो कोई बरसाता   ।।

किसी के गम वो सह न पाती
नारी होती करूणा की सागर
मन उसका भींग ही जाता
देख के किसी के पराया पीर   ।।

अकेले ही जीवन के झंझावात
नारी हिम्मत से सहती रहती
बिना रूके, बिना थके, बिना मुड़े
नदियों के मानिंद बहती रहती          ।।

हृदय में सागर सी विशालता
संवेदनाओं से भरी हर नारी
ममता की छाँव उसका आंचल
त्याग की अप्रतिम मूरत नारी    ।।

 

Thursday 11 October 2018

आओ वृक्ष लगाएँ

खेत खलिहान हँसते रहे
लहलहाती रहे धरा
खिले रहे बाग बगीचा
कहे पुकार के वसुन्धरा  ..

करो न सृष्टि का सत्यानाश
करो न उजाड़ वन उपवन
बन जाएगी ये धरती बंजर
वृक्षों का न करो कटान...

माँ समान होती धरती
जो भर देती सभी के पेट
हरी भरी न हो धरा तो
जड़ चेतन हो जाएँगें नष्ट ..

न उमड़ेंगे घुमड़ेंगे बादल
होगी न फिर बरसात
बिन हरीतिमा के धरती
जैसे उजड़े चमन प्रकृति

बर्फ बिन होंगे सारे सूने पहाड़
खत्म हो जाएँगी सृष्टि के सौन्दर्य
न ही किसी को शुद्ध हवा मिलेगी
न रहेगी किसी की काया निरोगी

 महरूम हो जाएँगे हम कन्दमूल
फल, सब्जियों व औषधियों से
अक्रान्त धरा करेगी करूण क्रन्दण
विकृत अंजाम जलवायु परिवर्तन से...

जागो मानव आओ मिलकर
प्राकृतिक संपदा की रक्षा करें
हर ओर वृक्ष लगा कर
इस धरती का श्रृंगार करें ...
 

स्मृति गाँव की

बचपन में खेले जिस आंगन
जिसकी धूल बने थे चंदन
उस मिट्टी पर पड़ते ही चरण
शीश झुका, भावुक हो गया मन
छूके उन्हें फिर करने लगी वंदन ...

आंगन दलान यूँ ही है विद्यमान
बाग- बगीचे ,तालाब व मकान
सब होके भी लगता है खालीपन
जिनसे थे हम बंधे उन्हें ढूंढ रहें हैं नयन
नहीं हैं वो जिनपर करते थे अभिमान ...

दरवाजे से मीलों हरी भरी खेतों का दिखना
दलान के कुएँ में महिलाओं का पानी भरना
फूलों भरी डाली लिए लोगों का मंदिर जाना
पापा और ताऊजी का वो वार्तालाप गहन
जीवन्त हो उठा फिर दर्द की लहर छीन ली चैन

दादा जी के पूजा को बागों से फूल चुनना
मंदिर में पहले दीये दिखाने की होड़ लगाना
अमिया के बगीचे में सखियों संग खेलना
अब तलक जिंदा है जेहन में वो यादें  सघन
 भूल न पाई पगडंडियों में सहेलियाँ संग चलना ..

मंदिर में बजती है घंटियाँ होती है पूजन
पूजारी बदलते गए बीते कई सालों में
छप्पन भोग अब भी लगता परंपरा है अक्षुण
पर नहीं रहे अब वो गाने वाले झूलन
स्मृतियाँ शेष है मिट गए उनके निशान ...

क्षणिका

*रिश्ते *

रिश्ते की गहराई
परत दर परत
खुल ही जाती है ।
हकीकत के सरजमीं पर
वास्तविकता का पता
चल ही जाता है ।
झूठ और अविश्वास
की नींव हो तो
रिश्तों के महल को
 टूटने में देर नहीं
 लगती है...।
मन में ही गर खोट
हो तो चाशनी में डूबे
रिश्ते भी बिखर जाते हैं ।

*मुहब्बत *

अपने लिए सभी जीते
कभी गैरों के लिए भी
दिखा मुहब्बत...।
तो  समझोगे ! किसी पे
स्नेह और प्रीत लुटा के
कितना सुकून मिलता ..
है परिभाषा  प्रीत की रीत
पहले त्याग दिखाते
तो बदले में वो जान देते
किसी के गमों को बाँटना
और बेबसी में साथ निभाना
ही मानव जीवन की
सार्थकता है...।

*विश्वास *

विश्वास ही है जो
अंधकार में प्रकाश
जड़ को भी चेतन
बना देते हैं ...।
विश्वास ही ईश्वर के
अस्तित्व को स्वीकार्य
बनाते हैं ...।
विश्वास ही हर रिश्ते
की नींव है...
इसे किसी तराजू में
तौलना असंभव है ।

*मौत*
नन्हें नन्हें पग से  चलते रहे
पथिक मिलके बिछुड़ते रहे
राहों में ...
रह गए खाली हाथ लेके
जीवन के मेले में ..
जाने वाले चले जाते
देकर कई अमिट याद..
दरवाजे पर खड़ी है मौत
चलता कहाँ किसी को पता
कर जाते हैं हतप्रभ
और विस्मित सबको

उषा झा (स्वरचित

Thursday 4 October 2018

बिखरे जीवन

विधा -राधिका छंद

बचपन बीच राह पड़ा,,,अधर में जीवन          1.
जननी भी मुँह मोड़ ली,, नीर भरे नयन
आया न तरस उसे,क्यों?,,, हमें  छोड गयी
तड़पा ना दिल तनिक भी,,, मुझे भूल गयी

नियति पे चलता न जोर, रुठ रहा जीवन।      2.
शायद ममता मर रही, मध्य हो असुवन।
दिल के टुकड़े से मोह, हुआ क्या हासिल।
लाख किया है कोशिशें, मिली क्या मंजिल।

प्यार में लुटा के होश,, बिखरते गये हम।        3.
इश्क की आग में रोज,, झुलसते गये हम।
काम ऐसा तुम‌ न करो, पड़े पछताना।
सदा सोच कर रख कदम, होश न गवाना।

खुद के हाथों लूट गई ,,,जीवन बिखर गई         .4
की जो तुम भूल अपना,,घर ही जला गई
करके अपना होश गुम,,,, भूल गई राहें
लो काम अगर अकल से,खुशी मिले तुम्हें

शिव चौपाई

विधा- चौपाई/दोहा संयुक्त सृजन

शिव शंकर मन के भोले , वो हैं कृपा निधान।
मुदित शंभु तांडव करे ,रहते हैं अंतर्ध्यान   ।

सुर नर तेरा महिमा गाये
जग के नियम तुमने बनाये
सभी देव के अराध्य तुम्हीं
तीनों जगत के स्वामी तुम्हीं

कैलाश पर्वत पे निवास है
वस्त्र पहनते मृगछाला हैं
अमृत बाँट सुर अमर बनाये
पीकर विष नीलकंठ कहाये

नंदी सवारी तुझको भाये
जटा में गंगा चंद बसाये
गले सर्प मूंडमाल शोभते
भस्म रमा योगी कहलाते

विलपत्र आक तुझेअति भाते
भांग धतुरा निश दिन खाते
मन वचन से जो कोई ध्यावे
तुम उस पर प्रसन्न हो जावे

देवाधिदेव तुम दया करो
उर के सारे अब क्लेश हरो
जगत का करो सदा कल्याण 
दिन रात  मांगूँ  ये वरदान

जब करे कोई अभिमान,क्षण में कर दे चूर्ण
मन से शिव आराध्य लो,,करे कामना पूर्ण

Wednesday 3 October 2018

भव पार

रूप माला छंद

रघुवर गहरी धार देख , सोचे गंगा तीर
अनुनय करके बोले हरि,कर न हमें अधीर
कैसे गंगा पार करूँ ,सिय है सुकुमारी
जनक नंदिनी थकी हुई  ,प्राणों से प्यारी

केवट नाव ले कह रहे ,पग लूँ मैं पखार   2.
रूपा की बने न नैया, वो करते गुहार
भाव देख मोहित हुए हरि, हँसके दिए दाद
जनम मरण के बंधन से,मुक्त हुआ निशाद

हरि के चरण जब पखारा ,बंधा नेह अटूट    3.
बहाने चरणामृत पान , बोल दिए सौ झूट
दाम प्रभु से लिए बगैर, ले गए गंगा पार
केवट हृदय भाव बिभोर, हुआ भव से पार

अर्पण

विधा-हरि गीतिका

1.बंसी बजे जब घनश्याम की,अरमां नेह की जगे
     छोड़ मोह माया की बंधने, श्याम रंग में रंगे

2.जन्म सफल हो तब हरिहर, दरश जो तुम दे मुझे
     चरण रज की धूलि लेकर, पूँजूँ दिन रैन तुझे

3.मीरा नेह में छोड़ी महल,कृष्ण मय जगत दिखे
   जो प्रेम से तुझे पुकार ले, तुरंत वशीभूत दिखे

4.रास रचाते गोपियों संग, चितचोर कहते सभी
   राधा कृष्ण के प्रीत अमर, ब्रजवासी मगन तभी 

5.काम क्रोध आसक्ति में रमा, मन करो अब साधना
   बीच भंवर में डूबे नैया, पार लगा न मोहना

6.मेरा न कोई दूजा कान्हा, न्योछावर सब तुझको
   अर्पण करूँ मन प्राण देके , संवार दो जीवन को

7.आकंठ में कब से डूबी हूँ, ले लो तुम शरण मुझे
 सखा अब मुझे बना ले श्याम , वार दूँ जीवन तुझे

Tuesday 2 October 2018

बेटी है गहना

देख जमाना बहुत खराब है,मेरी  प्यारी बहना ।
 घर के बाहर देर रात तक, नहीं अकेली रहना  ।।

भेष बनाकर बहुरूपिये,  बाहर घूमा करते ।
मीठी मीठी करके बातें,  मन में झूमा करते ।
फँसी किसी के चुंगल में तो,पड़े बहुत कुछ सहना
घर के बाहर देर रात तक, नहीं अकेली रहना

बचपन में दिए संस्कार को तू रख ले संभाल कर
किसी के घर की आबरू हो हरदम ये याद कर
पढ़ लिखकर तुम अपने कुल का मान बढाना
घर के बाहर देर रात तक नहीं अकेली रहना

राह में मिले कितने ही कांटे तू चलना संभल के
दुष्ट घात लगाए बैठे हैं, उनसे रहना बच बच के
दिखाना आईना उसको,खुद पे भरोसा न खोना
घर के बाहर देर रात तक नहीं अकेली रहना

फुर्सत जब भी मिले तुम्हें ,आना घर लेके मुस्कान
माँ पापा की नैनों की तू ज्योति हो उनकी धडकन
खुशियाँ मिले भरपूर तुम्हें उनका यही है सपना
घर के बाहर देर रात तक नहीं अकेली रहना 

कदम कदम मिला के चलती रहना तुम जमाने के
अपनी संस्कृति को न भूलना आधुनिकता में बहके
मर्यादा सीमा का उल्लंघन बहना कभी नहीं करना
बहना तुम तो हो हम सबके घर की गहना...

देख जमाना बहुत खराब है, मेरी प्यारी बहना ।
घर के बाहर देर रात तक नहीं, अकेली रहना ।।

Monday 1 October 2018

भोलू की रेल

बाल कविता

भोलू की छुक छुक रेल
लगी है भीड़ बच्चों की
बच्चों को हुआ कौतूहल
ललचाई निगाहें उसकी

 घर में लगा भोलू का मेला
अचरज में पड़ गए बच्चे
धुआं उड़ाती देख के रेल
भाया खिलौने वाली रेल

सबका हीरो बना है भोलू
सब बच्चे हर कहा मानते
जो भी फरमाता है भोलू
देख क्रोधित हुआ भोलू

लालच में किसी ने चुराई रेल
रेल चोरी से लगा रोने भोलू
बच्चों ने ढांढ़स बंधाया बोले
जल्दी हम ढूंढके लाएगें रेल ...

बच्चों ने बिछाया अब जाल
जोर जोर से सब बच्चे बोले
जो चूराएगें वो जाएंगे ही जेल
पतलू सहम गया लाया रेल ...

उषा झा  (स्वरचित)
उत्तराखंड (देहरादून)

 

पूरक नर नारी

स्त्री पुरुष एक दूजे के ही पूरक होते
समाज रूपी गाड़ी के दो पहिए होते

चलना असंभव समाज व परिवार
दोनों में एक जब हो जाए कमजोर
बढ़ेगी तभी समाज की निरंतर  गति
जब पहिए रहेगी गतिशील बराबर
दोनों हो सलामत तभी जग की प्रगति

स्त्री पुरुष  एक दूजे के ..

नर नारी दोनों स्वभाव से विपरीत
नारी कमजोर, कोमल व दया की मूरत
कद काठी भी दोनों के ही भिन्न होते
नर धीर गंभीर और शरीर से मजबूत
भिन्न होके भी दोनों में प्रेम है अनंत

 स्त्री पुरुष  एक दूजे के पूरक होते ...

ईश्वर के लिए दोनों ही बराबर होते
समान हक दे के ही वो धरा पे भेजते
मुट्ठी भर लोग नारी के हक छीन लेते
लाचार और अबला करके वो छोड़ते
व्यक्तित्व निखरे जब सब इज्जत देते

स्त्री पुरुष  एक दूजे के ...

घर को स्वर्ग सा नारी ने ही संवारा
सबके लिए ही दिल में है भरी ममता
माँ ,बहन, पत्नी हर रूप को निखारा
फिर भी तिरस्कार नारी सबकी सहती....
नेह मिले नारी को घर खुशियों से भरती

स्त्री पुरुष  एक दूजे के..

जहाँ नारी की अवहेलना न होती
फौलादी सीना लेकर चरित्र गढती
नर के उपर न्योछावर जीवन करती
सुख दुःख में हमेशा साथ निभाती
जिन्दगी दोनों की ही हसीन हो जाती

स्त्री पुरुष एक दूजे के ..

जब नारी को मिलता हक बराबर
जब मिलता घरों में समान अवसर
तब पुरूषों के कंधे से कंधे मिलाकर
सफलता की परचम हर ओर लहराती
हर क्षेत्रों में प्रतिभा से रूबरू कराती

स्त्री पुरुष एक दूजे के ही पूरक होते
समाज रूपी गाड़ी के दो पहिए होते