Saturday 13 October 2018

विदाई

विधा-कविता

बेटी बन कोख में जब आई थी
जीवन साकार हुआ था मेरा
आंचल में चाँद का टुकड़ा आया
देख कर सबका मन हर्षाया
 ममता के फूल वो खिला कर
मेरे घर आंगन को महकाया...
मिल गया मन चाहा खिलौना 
जिसको पाकर मेरी दुनिया
 उन तक ही सिमट गई थी ...

धीरे धीरे जाने कब समय के साथ
वो बढ़ती ही चली जा रही थी
तनिक भी आभास नहीं लगा था
बिटिया बड़ी हुई ,कब आएगी बारात
मित्रों, रिश्तेदारों ने जब आगाह किया
उस दिन ही आँखों से नींद उड़ गई थी ..
दिल के टुकड़ा को कैसे विदा करूँगी
सोच सोच के मन ही मन मैं व्यथित थी ...

दस्तूर तो सबको निभाना ही पड़ता
राजा भी बेटी को घर कहाँ रख पाता
बिटिया ही दोनों घरों की नेह दीप है
सोच के मन को ढ़ाढ़स बंधाया था
जीवन में उसकी खुशियाँ भरनी है
सपनों के राजकुमार सा वर ढूंढना है
 मन ने निश्चय उस दिन कर लिया था..

आ गई हर्ष, उन्माद, विषाद की बेला
दरवाजे पे मेरे लग गया अब देखो मेला
वेद ऋचाओं के मंत्रों से आंगन हर्षाया
सभी मिलकर दे रही थी मुझे बधाईयाँ
बेटी दामाद के मुख चुम मैं ली बलाईयाँ
कन्या दान पूण्य से धन्य हुआ जीवन मेरा
मन के संतोष ने कुछ पल संताप मिटाया

 लाड़ली की विदाई का वो पल आया
 मेरा  कलेजा छलनी हुआ जा रहा था
खुशियाँ सारी न जाने क्यों विरह में डूबी
हुई परायी मेरी बन्नो सह नहीं पा रही थी
रोते नयन से बिटिया को गले लगाकर
हृदय से सुखी संसार का आशीष दे रही थी
बाबूल से ले लो दुआ देखो रोए जा रहे हैं !
दोनों कुल की लाज रखना ! समझा रही थी
हमारी आँखों की ज्योति हम से दूर हो रही थी... ।








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