लाल,लहूँ से थी धरा
मानव तन से राह ।
गुजर रहे बेफिक्र सब ,
नीची करे निगाह ।।
चिथड़ा चिथड़ा मांस था,
बदबू भरा शरीर ।
नर पिशाच था कौ'अधम
दिया मनुज को चीर ।।
मानव तन चिथडें पड़े,
बढ़ा रहे दुर्ग॔ध।
चील कौए नोंच रहे,
किए लोग दृग बंद ।।
चूस हाड़ कुत्ता रहा ,
मक्खी चिपटी ल्हास।
गिद्ध फाड़ आँते रहे,
समझे भोजन खास ।।
आ गया वहाँ भेड़िया ,
लगा चबाने टांग ।
देख कैय करते सभी ,
गए मनुज सब भाग ।।
मुर्दा सड़ता रह गया ,
लगा न मानव हाथ ।
रे नर तू भी सोच ले ,
क्या जाएगा साथ?
कुकर्म जो भी नर करे,
कालिख मुख दो पोत ।
तन उसके कीड़े पड़े ,
निकट न आवे मौत ।।
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