Monday 21 January 2019

मृगतृष्णा

विधा- कविता

जिन्हें ढूंढ रही हर वक्त बेचैन निगाहें
जिनके ख्यालों में दिन रैन दिल डुबे रहे 
फिर भी उन्हें कभी भी एहसास न हो
उनको क्या कहूँ नजर का धोखा
मृगतृष्णा या फिर सिर्फ छलावा ..

जब धड़कनें भी अपनी बस में न हो
मन में उनके ही प्रेम धुन बजती रहे
पर उनके होंठों पे न कोई प्रेमगीत हो
उनको क्या कहूँ नजर का धोखा
मृगतृष्णा या फिर सिर्फ छलावा ..

अंखिया जिस के वास्ते तरसती रहे
दिल जुदाई का गम न सहना चाहे
प्रियतम को मिलन की चाहत न हो
उनको क्या कहूँ नजर का धोखा
मृगतृष्णा या फिर सिर्फ छलावा ..

जो पास में रहके दूर दूर ही रहे
करते न हो जरा सा भी परवाह
रहते खफा खफा, हमेशा दूर ही रहे
उनको क्या कहूँ नजर का धोखा
मृगतृष्णा या फिर सिर्फ छलावा ..

स्वाती के बूँद के लिए चातक के तरह
सदियों से प्यासी जो करती इन्तजार
बैरन पिया को तनिक भी न हो कदर 
उनको क्या कहूँ नजर का धोखा
मृगतृष्णा या फिर सिर्फ छलावा ..

उषा झा  ((मौलिक)

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