विधा - रोला
ढलती जीवन साँझ , सुहाने पल हैं बीते ।
फिसल गया जब वक्त , मनुज क्यों लगते रीते।।
पले दिलों में मोह , जिन्दगी व्यर्थ गँवाया ।
किए नहीं जब कर्म, मनुज क्यों फिर पछताया ।।
कटी नींद में उम्र , भुलाया नाते रिश्ते ।
जीवन संध्या पास , शीष पकड़ क्यों सिसकते ।।
करते छल दिन रैन , गम संताप के पीते ।
फिसल गया जब वक्त, मनुज क्यों लगते रीते ।
तन से निकले प्राण, उड़े पिंजरे से देखो ।
धन दौलत बेकार , जरा तुम यही परेखो ।
धन दौलत बेकार , जरा तुम यही परेखो ।
गया नहीं कुछ संग, रटै तू तेरा मेरा ।
धन बल का अभिमान, बँधा माया का फेरा ।।
धोया कब मन मैल , हरदम स्वार्थ में जीते ।
फिसल गए जब वक्त , मनुज क्यों लगते रीते ।।
धन बल का अभिमान, बँधा माया का फेरा ।।
धोया कब मन मैल , हरदम स्वार्थ में जीते ।
फिसल गए जब वक्त , मनुज क्यों लगते रीते ।।
तुम जो बोये बीज , काटता फसल उसी का ।
त्याग दिया संस्कार, निभाया न फर्ज सुत का ।।
आई जीवन शाम ,मन अब लगे अकुलाने ।
खुशियाँ होती बाँझ , भय फिर लगते समाने ।।
होता यौवन खत्म , अश्रु नयन हैं पीते ।
फिसल गए जब वक्त, मनुज क्यों लगते रीते ।।
ढलती जीवन सांझ, सुहाने पल हैं बीते ...।।