विधा- शृंख्ला दोहे
वशीभूत हरि प्रेम के, हृदयंगम में भक्त ।
बँध जाते है स्वयं हरि,नियम खत्म सब सख्त।
नियम खत्म जब सख्त हो , बहे व्यर्थ में रक्त ।।
मनुजता पर चोट जब, तब मर्यादा जप्त
तब मर्यादा जप्त हो ,आता हरि को क्रोध ।।
तन विराट धारण किए , हरि के रूप अयोद्ध ।।,
हरि के रूप अयोद्ध थे , समा गए संसार ।
यशुदा इतनी डर गई,विस्मित नैन निहार ।
विस्मित नैन निहारती, कुटिल मनुज को देख ।
गिर मनुष्य कितने गए , मिटे मनुजता रेख ।।
मिटे मनुजता रेख जब , घृणा बिकै बाजार ।
प्रेम नेह दिल में नहीं, रिश्ते है मँझधार ।।
रिश्ते है मँझधार में, करे प्रेम व्यापार ।
बना खिलौना दिल लिया, जता रहे अधिकार ।।
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