विद्या:- वर्ष छन्द- वार्णिक
वृहती जाति
मगण, तगण, जगण,
222 221 121
कान्हा पे राधा निसार ।
दोनों ने खोले उर द्वार ।।
नैना खोये हैं अभिसार ।
भोली राधा दी अधिकार ।।
कैसी थी वो मोहित नार ।
दौड़ी बंसी को सुन धार ।।
भूली राहें, हे करतार ।
थामे कान्हा के पतवार ।।
भाये कान्हा को अनुराग ।
खेले गोपी माधव फाग ।।
मीठा मीठा, प्रेम अपार ।
देखो छेड़े हैं उर तार ।।
कान्हा के देखे ब्रज रास ।
कैसी माया ! नैनन प्यास ।।
गोपी राधा थी कुछ खास ।
झूमे गाये पी बहुपास ।।
नैनों की आशा अब श्याम ।
गोपी की चारों बस धाम ।।
बंधे जन्मों, है दिल याद ।
सच्चे रिश्ते ही बुनियाद ।।
लीला धारी के नव रूप ।
कान्हा राधा नेह अनूप ।।
काली रैना वे मदहोश ।
कान्हा नाचे हैं मन जोश ।।
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उषा झा देहरादून
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