Saturday 28 September 2019

युग द्रष्टा घनश्याम

विधा- दुमदार दोहे

बहु भाग्य वृन्दावन के, बाल-कृष्ण का रूप।
नटखट माखन चोर बन , लगते कृष्ण अनूप ।।
जी लीला धर ले उड़े ।
नेह गोपी के उमड़े ।।

चोरी माखन नित्य ही , करें सखा, गोपाल ।
गोपी करें शिकायतें, जाते थे वो टाल ।।
जब कान्हा पकड़े गए ।
गोप संग जकड़े गए  ।।

मुग्ध नैन ब्रजवास के, देख अलौकिक रास ।
मोहित राधा, कृष्ण पर, बंसी फूँके श्वास ।।
वो यशुदा का  लाड़ला ।
गुपियन का भी लाड़ला ।

ब्रजभूमि के भाग्य खुले, कण कण में भगवान ।
पूरा द्वापर में हुआ , देवकि को वरदान ।।
कंस संहारा गया ।
दानव मारा गया ।।

भूल कृष्ण सबको गए, धेनु, यमुन के तीर ।
राज-काज में वे बहे, गुपियन बहता नीर ।।
बाम अंग रुक्मी नार ।
गोवर्धन अँगुर धार ।।

पार्थ कृष्ण को बहु प्रिय , सौपा गीता ज्ञान
मोह भंग अर्जुन  हुआ, नष्ट हिया अज्ञान।
बने  सारथी  मित्र के ।
महभारत के चित्र  थे।।

पाण्ड़व अकेले जब हुए, सिर्फ कृष्ण थे साथ ।
कुचला सिर अन्याय का , मिली जीत प्रभु हाथ ।।
दिखा मार्ग, मानव दिए।
;रूप विराटी धर लिए।।

Friday 27 September 2019

शिव ही सृष्टि

विधा - दूमदार दोहे

जटा चंद्र ग॔गा बसे , अद्भुत योगी राज।
डमडम डमरू बज रहे,नाच रहे नटराज ।।
शिव के माला साँप ।
नंदी   जाये  भाँप ।।

शोभते रुद्राक्ष गले , रक्तिम नेत्र विशाल ।
भूत प्रेत नंदी लिये , घूमते  महाकाल ।।
भस्म रमाये  अंग ।
शिखर पार्वती संग ।।

भोले निर्मल हृदय के , पल में दें वरदान ।
दानव भी जब पूजते , दे तभी महादान ।।
अमर हुए सब देव
खुश  हुए  महादेव ।

समुद्र मंथन जब हुआ, निकले थे विष सोम ।
माणिक लूटे देव सब, देख मोहनी भौम।
सभी दानव देव लडे।
अमृत पान को वे अड़े ।।

कौन हलाहल विष पिये ,आफत मे थी जान ।
देव असुर,भयभीत थे , शंभु किए विष पान ।।
सब कहे नील कंठ ।
सभी क्रोध में संठ ।।

गौरी संग प्रसन्न शिव , रहते हैं कैलाश ।
होते  हैं भक्त अति प्रिय ,करे दुष्ट का नाश ।।
भोले, भोले नाथ ।
वे है दीना नाथ।।

पाप जगत में जब बढे, धरे रोद्र शिव रूप ।
जब त्रिनेत्र  खुलते गए, खत्म सृष्टि के भूप ।।
करे माफ शिव भूल ।
हरे भक्त के शूल ।।

बेरहम

कैसे करूँ उनकी बंदगी
बीच राहों पर है जिन्दगी

 वफा की कीमत ही चुकाई
 मिला सिर्फ मुझको रुसवाई
 छँटे नहीं  नैन से भ्रम कभी
  करता था हर दिन दरिन्दगी
  कैसे करूँ उनकी बंदगी ...

  ढाया सितम टूटा दिल कहीं
  दिया हृदय में वो जगह नहीं
  दिल में भरती सिर्फ आह ही
  साथ पल भर के दिए दर्द ही
  बची है अब तन्हा जिन्दगी
  कैसे करूँ उनकी बंदगी ...

उषा झा देहरादून
 

दिल पर बल न डालो

  12122     12122         1 212 2        12122
रहा नहीं गम कभी हमें भी,खुशी मिली जो तुम्हीं सँभालो ।
भुला ,रहे तुम रहम कभी तो करो, हमें अब कुचल न डालो  ।।

वफा नहीं वो करे उन्हें क्या कहे किसी से न आरजू अब ।
मियाँ दिखाते शकल न अपना,किसी परी पर फिसल न डालो

कभी पुकारा तुम्हें हृदय से, मगर न कोई जवाब पाया ।
चलो मिटा दो सुहानी यादें , खुशी में अब खलल न डालो ।

दिवा स्वप्न से जगी तो दिल का खुमार जाने कहाँ गया है।
यहाँ तो माँगे न भीख मिलती, चलो हृदय पर ये बल न डालो

नहीं गिला है सनम जहाँ भी रहो दुआ है  मिले सभी सुख
 गुजर गए वक्त प्यार के अब जुदा है राहें  दखल न डालो।।

यकीन किस का करें जिगर पर लगी अभी चोट जो गहरा है ।
उड़ा रहा था पतंग जैसा , गिरी धरा पर  पहल न डालो ।।

Thursday 26 September 2019

विकल राधा

विधा- मधुमालती
२२१२    २२१२ 
राधा विकल ,मन हो चली 
यमुना किनारे रो चली
मोहन बिना, सूनी गली
वृषभानु की, वह लाड़ली

छलिया खुशी, सब ले गया
वह दर्द कितने दे गया
विरही भटकती राधिका
वह श्याम की है साधिका

कैसे जिए अब साँवरी
माधव पुकारे बावरी
बंसी बजा, अब मोहना
दुख से उबारो सोहना

जीवन कहीं, पर खो गया
जब दूर कृष्णा हो गया
प्रियतम कहाँ तुम हो गए
नेहा लगा क्यूँ सो गए

ब्रज की गली, चुपचाप है
हर ओर बस, संताप है
माया ठगे, से लोग हैं
यह लाइलाजी रोग है
 
उद्धव नहीं समझाइए
अब ज्ञान ना, बतलाइए
राधा नहीं, जब श्याम की
विधना भला, किस काम की

राम सिय वनवास

विधा-चौपाई/ दोहा(कड़वक)
विषय - राम वनवास

कैकयी सिया राम से  ,,करती स्नेह  अटूट
थी मंथरा कुटिल बहुत ,,महल डाल दी फूट
 
जभी कुमति ने डेरा डाला
आ ही गया दिवस फिर काला
 जा रहा विटप राज दुलारा
 छा गया नगर में अँधियारा

युवराज चले अब महलों के
जो थे ज्योति सभी नैनों के
दुखद घड़ी की बेला आई
राज महल में दुर्दिन छाई

जान लिया कारण दुख का
मान लिया आदेश पिता का
राग द्वेष  बिन आज्ञा कारी
लगी कैकयी माता प्यारी

रघुवर नंगे पाँव गए वन
सबके निष्प्राण हुए मन
लहर शोक की जन जन छाई
 नगर अयोध्या विपदा आई

कौशल्या को  मुर्छा छाई  ।
गंगा यमुना नीर बहाई    ।
बजे महल में पायल किसकी
बसे प्राण सीता में उसकी

वैदेही जब वन चली ,,कानन विटप उदास
सिया पाँव छाले पड़े,,मलिन मुख नहीं खास 

हुआ पिया बिन जीना भारी
रही अधूरी पति बिन नारी
मौन उर्मिला थी शर्मीली
नैन नीर रख रही अकेली ।।

चली  विमाता चालें कैसी
कसम खिला दी क्यों कर ऐसी ।
पुत्र राम प्रस्थान किए वन
दशरथ तज दिए प्राण तत्क्षण  ।।

छा गई महल अजब उदासी
हुए राम लक्ष्मण  वनवासी
विधि का विधान किसने जाना
दासी का क्यों कहना माना

भरत खबर सुन दौड़े आए
प्रजा संग माता को लाए
चरण पकड़ भाई के रोया
राम भरत को गले  लगाया  ।। 

दोनों भाई मिल रहे,,  नैन बह रहे नीर
रघुवर भी विचलित हुए ,,था द्रवित उर अधीर

भाई मिलाप पीर भरा था
सब नैनों में अश्रु भरा था
किस्मत ने सब खेल रचाया
कानन कुँज भी अश्रु बहाया  ।।

राम भरत को फिर समझाया
कर्तव्य सभी फिर बतलाया
कर्म करो तुम जब तक आऊँ
लौटे लेकर भरत खड़ाऊँ  ।।
 
महान पूत राम कहलाते
मर्यादा की रीत सिखाते
सारे जग हो कुटुम्ब जैसे
युगों जनम लेते मनु ऐसे  ।।

व्याकुल माँ कहती फिरे ,,हुआ ग्रह का मेल
राम सिया वन वन फिरे,,भाग्य का है खेल

उषा झा स्वरचित

 

दर्द दरिया की

विधा - मालिनी छंद

111 111 222 122  122
हर पल सहती नारी युगों से अकेली
सरस मन कभी कोई लगी ना पहेली
पल पल वह मुस्काती भली वो छबेली
सरल हृदय की होती खुशी ही सहेली

मुड़ कर न कभी देखी, पिता गृह छोड़ी
सहज गुनगुनाती बेतहासा न दौड़ी
बरबस उनको बाँहे पसारे पुकारे
उथल पुथल भारी आ गई जो बहारें

नयन जल बहे वो क्यों हुई थी परायी
चलन जगत की तुम्हें निभानी सदा ही
बिछुड़ कर सुता तो भूल जाती रवानी
बचपन छिन लेती है जवानी दिवानी

गुरु नीम समान

विधा- दुमदार दोहे

करें,प्रकाशित गुरु जहाँ, सब मिटे अंधकार ।
गुरु प्रकाश के पुंज हैं,करते वो उद्धार ।।
पथ दिखाएँ जब भटके  ।
गलत रास्ते जब अटके।

गुरु, जीवन पतवार है,उन बिन डूबे नाव ।
सच्चे दर्शक राह के , उनका सहो दबाव ।।
सेवा कर ,लो लाभ सब  ।
दर्शन पालो आप सब  ।

गुरु बिना भेदभाव के  , शिक्षा देत समान  ।
भविष्य उनके चरण में , गुरु का कर सम्मान ।।
दिखलाओ अवगुण उन्हें  ।
कभी न तुम टालो उन्हे।

गुरु समाज को सीचते , करके विद्या दान
छलके गंगा ज्ञान की , सबका हो उत्थान ।
मिटाते तमस जगत में ।
जगाते अलख हृदय में   ।।

गुरु बोल लगते कड़ुवे , वो हैं नीम समान ।
अंकुश गुरु मन पर रखे, लेलो विद्या दान ।।
विकार हटाते सबके।
पवित आचरण मन के  ।।

जीवन भटकता बिन गुरु , ज्यों पतंग बिन डोर ।
जीवन गढ़ते कुंभ सा , दक्ष अंगुली पोर ।।
शीश झुका लो चरण में  ।
आओ गुरु की शरण मे।

गुरु से विद्या सीख लो , करो ज्ञान भंडार ।
सिर उनका ऊँचा करो ,बिखरे रंग हजार ।।
जीवन में लाये खुशी  ।
मिटे विषाद, मिले  हँसी ।।

रिश्ता पावन शिष्य गुरु,  हैं सदा बरकरार
आदर जब उनको मिले ,परंपरा साकार ।।
कर्म केपरचम  लहरे ।
रंग जिन्दगी में  भरे  ।।
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Monday 23 September 2019

चाहत नदी की

विधा- दिक्पाल छंद 
221    212 2   221   2122
हिम चीर कर चली थी,पथ में नदी अकेली
राहें कठिन बहुत अब, है संग बिन सहेली
थी हिम गिरी सुता वो , मैदान अब बसेरा
अल्हड़ मना उछलती,हर साँझ से सवेरा

जब सोम रस पिलाती , सबको बहुत लुभाती
कल कल ध्वनी सुनाती,मुक्ता नदी लुटाती
अंजान गाँव बहती , बाबुल नहीं बुलाता
निश्छल हृदय भरा है ,प्रीतम बहुत सताता  

मुड़ कर न देखती है, अपनी मगन भली वो
पागल पवन मिले जो पिघली नहीं ढली वो
अरमान है मिलन का चलती रही निरंतर 
 बहती रही घायल पर साथ देते पत्थर

निश्चित डगर इरादा है अब अटल हमारा
जब साथ हो पिया का जीवन सफल हमारा
दिल में बसी रहूँ मैं चाहत यही हिया में
संगम करूँ उन्हीं से सपना वही जिया में।

दोहे (वात्सल्य रस)

कितनी हर्षित मै हुई  , पाई जब  संतान ।
तुम्हें देख कर उर भरे, बनो नेक इन्सान ।।

पाकर सुख  मातृत्व का , मै तो हुई  निहाल ।
ममत्व से लोरी भरी,   गाती चूमूँ भाल ।।

नींव नही कमजोर हो , सींच रही दिन रात  ।
उच्च इमारत तुम बनो ,यही हृदय की  बात  ।।

लिखो इबारत तुम नई , देना तुम सौगात ।
रौशन करना नाम  तुम , मिले नहीं आघात ।।

विशाल बरगद से बनो , टिकें जमीं पर पाँव ।
करूँ भरोसा,मै सदा,  दोगे सबको छाँव ।।

बेटी तू ज्योति नयन की, तुझसे चलती साँस ।
धड़कती उर रश्मि ऋचा ,तनुजा मेरी खास ।।

मोहती रश्मि जगत को , हृदय भरे अनुराग ।
ऋचा वेद सी प्रखर है , देख दिल बाग बाग ।।

बोली झरने सी मधुर , तनया तू अनमोल ।
लाती खुशियों की लहर, हृद पट जाती खोल ।।

जीती तुझको देखकर ,निश्छल सी मुस्कान ।
प्रतिमूर्ति दया त्याग की ,तुम मेरी अभिमान ।।

बेटा कोई कम नहीं , श्रेयस उसका नाम  ।
करना अब विभेद नहीं ,दोनों एक समान  ।।

Sunday 22 September 2019

दोहे ( अद्भुत रस)

आलोकित अभ्र दमके  ,  पूनम की है रात  ।
चाँद निशा से मिल रहे , करते मीठी बात  ।।

देखो आए गगन में,  तारों की बारात ।
हीरे मोती चमकते , नभ दे प्रेमाघात  ।।

दुल्हन लगती है निशा,बढा हृदय अनुराग ।
चाँद मिलन को उतरे, पीर गए सब भाग ।।

खिली खिली सी चाँदनी, हर्षित हरसिंगार ।
आई बेला मिलन की , बिछने को तैयार  ।।

कितनी इतराई उषा,नैन भरे हैं प्यार ।
बासंती चोला पहन , अरुण करे मनुहार ।।

स्वर्ण किरण के संग रवि ,लेते जब अवतार ।
मोहित हो सूरजमुखी , गई हृदय वो  हार  ।।

सूरजमुखी युगों खड़ी, रवि से बहु लगाव  ।
पी दरश से झूम रही , तृप्त दृग अहो भाग   ।।

Saturday 21 September 2019

मोक्ष


सुधाकर के घर आए दिन लड़ाई झगड़े की आवाज आती रहती ।
पड़ोसी भी उसके घर के कलह से परेशान रहते.... ।
सुधाकर अकेला रहता घर के आगे वाले
वाले हिस्से में ।पत्नी बेटा बेटी को
लेकर पीछे वाले हिस्से में ।पति पत्नी की आपस में  बनती न थी ।कारण सुबह सुबह वो सतसंग में
चल देती, बच्चे अपने आॅफीस ।सुधाकर अकेले
अकुलाता रहता...। सतसंग के बाद मीना की सखियाँ
आ जाती, .. या वो उसके घर चली जाती ।बच्चे के बड़े होने के बाद आजाद,  घुमक्ड़ और गैर जिम्मेदार स्वभाव  की वो हो गई ।
पति जब फौज से आते तो दोनों कितने खुश दिखते ।
बच्चों की पढ़ाई और सभी खर्चों के लिए , मोटी रकम।भेजता सुधाकर, या यूँ कहें अपने लिए नाम मात्र रखता,
रिटायर हुआ तो सारे फंड दे दिया पत्नी बच्चों को..।
शुरू में बड़े प्यार से रहते पूरे परिवार । परंतु मीना को
बिन बंधन जीने की आदत हो चली थी... ।
पति की जरूरतें वो नजर अंदाज करने लगी ।घर पर
पति होने के बावजूद , वो चल देती ...।
"ऐसी ही छोटी छोटी बातों ने दोनों के बीच जहर घोल डाला था ....।"
वो अक्सर पीने लगा फिर हल्ला करता । बच्चे को संग ले पत्नी मारती पिटती ।रिश्ते इतने खराब हो गए की एक ही घर  दो हिस्से में बँट गए.... ।
खाना के नामपर कुछ भी खा लेता सुधाकर ।धीरे धीरे कमजोर हो गया... ।
अक्सर भूखा रहता , फिर भी पीता ।मीना खाना बनाती बच्चों के लिए ,....।
पति को एक कटोरी भी सब्जी न देती । लोग पूछते तो कहती , लेते नहीं ।  मेहमान सखी सब खा पीकर
जाते पर पति भूखा सो रहा फिकर नहीं ...।
बच्चों और पत्नी की बेरूखी से सुधाकर ने शराब में   खुद को डूबो लिया ।  फिर चीख चीख कर सबको
कहता मेरे पैसे पर ये लोग ऐस कर रहे , अपने घर में मुझे पराया बना दिया इसने ....
"मरने से पहले सारी प्रापर्टी ट्रस्ट में दान दे दूँगा.... ।"
हल्ला सुनकर बच्चों को संग लेकर मीना ने पति की आज भी लाठी से खूब पिटाई कर डाली ।
सिर फूट गया खून बहने लगे , फिर भी दिल न पिघले ।कुछ ही घंटों में बेजान हो गया सुधाकर ।
  लोग निःशब्द  हो गए सुनकर । फिर थोड़े देर तक रोने धोने का नाटक हुआ ।
अगले पल पंडित बुलाया गया , पडोसी इकठ्ठे हुए ।सबने
मिलकर सारी तैयारी की , ल्हास  ले जाने की बात हुई तो
  "मीना और बच्चों ने कहा हरिद्वार ले जाना इन्हें.... "
  सब एक दूसरे का मुँह देखने लगे... ..
"दाने दाने तरसने वाले ... "सुधाकर का मृत शरीर ..आज मोक्ष के लिए हरिद्वार जा रहा था ..."।
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Friday 20 September 2019

दोहे (शांत रस )

उषा हर्ष से लाल है, सूर्य रश्मि विस्तार ।
सबको सुप्रभात कहूँ, नमन करें स्वीकार।

घंटी मंदिर बज रही , मन है प्रभु के द्वार ।
भक्ति भाव उर में जगे, नव्य भाव संचार

मुदित खग वृन्द बाग में , वृक्ष लदे हैं बौर ।
गुलशन भी महका रहा , छाया है नव दौर

पंछी कलरव नभ करे , खिली हुई है धूप
भोर सुहानी द्वार है , लगता दृश्य अनूप ।।

लता कुंज भी झूमते , बहती मलय बहार ।
चहक पिहू कानन रही ,कूकत वो हर बार

दृग लुभाते है किसलय,,द्वार बसंत बहार ।
कोंपल मन में फूटते , बहे प्रेम रस धार ।।

उजले नीले घन गगन , मन को लेते मोह ।
कुसमित कानन देख कर,भटके उर किस खोह ।।

मानव प्रपंच छोड़ दो , कर लो सबसे नेह ।
अभिमान न कोई करो , माटी की यह देह ।।

नि: स्वार्थ बहती नदी ,धरा की बुझी प्यास  ।
मांगे बदले में कुछ न , किसी से नहीं आस  ।।

नि: स्वार्थ नदी बहती ,धरा की बुझे प्यास  ।
बदले में मांगे कुछ न , नहीं किसी से आस  ।।

Wednesday 18 September 2019

दोहे (वीर रस )

प्रहरी हो तुम देश के, हमको है ये भान ।
करे न परवाह खुद की , हो सबके अभिमान ।।

शीश चढ़ा ते माँ के चरण, अद्भुत तुम हो वीर ।
प्रेम हृदय जब उमड़ता , नहीं छोड़ते धीर ।।

सैनिक महान पुत्र है,   करते रौशन नाम ।
सेवा करते देश का,   करे न वो आराम ।।

गर्व करते मात पिता , जब दे सुत बलिदान ।।
कतरा कतरा बहते रक्त,बढ़ जाता सम्मान ।।

छक्के छुड़ाते अरि के , करे  फक्र  हैं  देश ।
घर में घुस कर चीर दे , बदले अपने भेष ।।

सपना सैनिक नैन में, तोड़ू दुश्मन दाँत ।
डाले भारत पर नजर, फाड़ू उसकी आँत ।।

दुष्ट देश को घात दे,  कभी नहीं मंजूर ।
तिलक करूँ अरि रक्त से, उर में भरे गरूर ।।

कुर्बानी  राष्ट्र  पर  क्यों,   होती है व्यर्थ ।
साँप घरों में पालते , होता बहुत अनर्थ ।।

खट्टे हो दाँत अरि के ,,करना ऐसा काम ।
हिम्मत अरि की नष्ट हो,कर दूँ मैं नाकाम ।।

माँ की सेवा फर्ज है, सबसे पावन धर्म ।
देते उनको कष्ट जो  , सबसे बड़ा धर्म ।।

दोहे (करुण रस)

क#...
जल, तिल-तिल नारी रही , सुरसा बनी दहेज ।
जुर्म अपनों का सहती, अश्रु बहाती सेज   ।।

निबटाते पितु ब्याह कर, बेटी बनती भार।
व्यथा कहे अपनी किसे , देता है दुख मार।

अन्याय के विरुद्ध वो , कर न सके प्रतिकार ।
संग नहीं कोई  खड़ा , खड़ी बीच मझधार ।।

रौनक  लाती  गेह    में,  नारी है आधार ।
सबको देती है खुशी, गम उसका संसार ।।

मुझको देवी मत कहो,बस दो थोड़ा मान ।
खुशी से न वंचित करो, नहीं करो अपमान ।।

ख #
वहशी कलि को नुँच गया , हुई लहूँ से लाल ।
लट खींच चोट बहु दिए, टूटी वो सम डाल ।।

चीख फिजाँ में गूँजती , देती उर को चीर ।
मातु छाती पीट रही , हो गई अब अधीर ।।

ढूंढ रही अपनी सुता, नहीं दिख रहीं आज ।
कलि देख हुई बावरी , गिरा उसी पे गाज ।।

बीच पथ में पड़ी रही, गुजरे मनु चुपचाप ।
बची दिल में दया नहीं,बनती कलि अभिशाप   ।।

सुकूँ छीन लेते सभी, जालिम के करतूत ।
बेटी कोख जनम न ले , हो जग ऐसे पूत ।।

सूखीं नदी

जल विहीन नदी अतृप्त मही,केवल रिक्त पाट है ।
विकास की ऐसी हवा चली , बादल रूठ गए हैं   ।।

दो बूँद नीर ही है जीवन, मानव व्यर्थ बहाए ।
पूर्वज की मेहनत बेकार , मनु वृक्ष क्यों कटाए ।
अब बरसे न बदरा धरा पर, जीव मुँह लटकाए ।
टुकुर टुकुर पशु पक्षी देखते, प्यास कैसे बुझाए ।
सूखीं नदी कृषक रोते , अस्तित्व लुट गए हैं ।
विकास की हवा.....

जल बिन धरा हुई जब बंजर , भूख सबको रुलाया ।
खुद ही आफत मनुज बुला दी, जलवायु बिगाड़ दिया,
जल संरक्षण फिजूल समझा, करनी मनुज भुगत रहे ।
कीमत वक्त की जो समझे , वो फिर मुस्कुरा रहे ।
पट्टी अब आँखों की खोलें , देख प्राण  घटु गए ।
विकास की हवा में ...

बनी रहे वसुधा दुल्हन सी, गुल से शृंगार करें ।
वृक्ष की कतारें लहराए, हम सभी प्रयत्न करें ।
कानन सजा फूल फल से हो,खग वृन्द मन हर्षाए ।
हरी भरी डाली किसलय से, दृग को बहुत लुभाए ।
फिर न रहे प्रदुषण, शुद्ध वायु,सबके जान बचाए ।

जल विहिन नदी अतृप्त मही ,केवल रिक्त पाट है ।
विकास की ऐसी हवा चली , बादल रूठ गए हैं ।।

Monday 16 September 2019

दोहे ( रोद्र रस)

शिव ताण्डव  करने लगे ,
रूप हुआ  विकराल ।
राख सती जब हो गई
बने शिव  महाकाल ।।

दक्ष हुए भयभीत तब
रूप देख नटराज ।
थे आतंकित देव गण
प्रलय करे शिव आज।।

माँ के भक्त गणेश जी,
रोका शिव को,द्वार
किया अलग धड़ पूत का
क्रोधित हुए अपार।।

धूँ-धूँ लंका जल रही,न
दृश्य बड़ा विकराल।
करके रावण, सिय हरण
बुला लिया निज काल

दुर्गा माँ क्रोधित हुई ,
असुर करे आघात
महिषासुर को ,चीर कर,
किया बहु रक्त पात।

चीर द्रोपदी हरण से, बहे रक्त थे युद्ध ।

हुआ महाभारत फिर ,पाण्डव बहुत थे क्रुद्ध ।।

 पापी  शीश चक्र चले, कहे प्रभु मनुज भार

 जब मामा कंस बनते, श्री कृष्ण ले अवतार ।



दोहे (विभत्स)

लाल,लहूँ से थी धरा
मानव तन से राह ।
गुजर रहे बेफिक्र सब ,
नीची करे निगाह ।।

चिथड़ा चिथड़ा मांस था,
बदबू भरा शरीर ।
नर पिशाच था कौ'अधम
दिया मनुज को चीर ।।

मानव तन चिथडें पड़े,
बढ़ा रहे दुर्ग॔ध।
चील कौए नोंच रहे,
किए लोग दृग बंद ।।

चूस हाड़ कुत्ता  रहा ,
मक्खी चिपटी ल्हास।
गिद्ध फाड़ आँते रहे,
समझे भोजन खास ।।

आ गया वहाँ भेड़िया ,
लगा चबाने टांग ।
देख कैय करते सभी ,
गए मनुज सब भाग ।।

मुर्दा  सड़ता रह  गया ,
लगा न मानव हाथ ।
रे नर तू भी सोच ले ,
क्या जाएगा साथ?

कुकर्म जो भी नर करे,
कालिख मुख दो पोत ।
तन उसके कीड़े पड़े ,
निकट न आवे मौत  ।।

Saturday 14 September 2019

शिक्षा अज्ञानी कर में

विधा - राधिका छंद 13/ 9

अशिक्षित गुरु से न मिले , ज्ञान की भिक्षा ।
कई स्कूल भी खुल गए , कौन दे शिक्षा ।।
आज अर्जुन तरस रहे , मिले द्रोण नहीं ।
हुए समाज दिशा हीन , दिखे कृष्ण नहीं  ।।

दिखता एकलव्य नहीं ,कहाँ शिष्य वो ?
गुरु बिना धनुर्धर हुए ,मान दे गुरु को  ।।
गुरु शिष्य परंपरा खत्म , नहीं गुरु वैसा ।
वेतन से नाता सिर्फ  , दौर ये  कैसा  ।।

शिक्षा अनपढ़ के हाथ  ,भाड़ फोड़  रही ।
अगर हो कमजोर नींव , बने महल नहीं ।।
फर्जी डिग्री से चले , आज स्कूल सभी ।
नित्य खिचड़ी पका खाय, रहे गुरू अभी ।।

भले बच्चे पढ़े नहीं , अंक हो बढ़ियाँ  ।।
यही इच्छा लील गई , फिजुल की खुशियाँ ।।
कैसे शिक्षा की दशा,,देश की सुधरे ।
कोई तो सवाल करे , आह अब न भरे ।।

उषा झा (स्वरचित )
देहरादून( उत्तराखंड )

दोहे ( शृंगार रस)

तुम बिन जीना है सजा , कुछ पल बैठो पास ।
जां निसार तुझपर करूँ, मुझपर कर विश्वास ।।

बने प्यार से नीड़ में , खिले प्रीत के फूल ।
टूटे अब न ख्वाब कभी , तेरे उड़े दुकूल ।।

तन तेरे स्वेत धवला, हृदय भरती प्रकाश ।
अधर से शहद पटकते , रूप बहुत है खास ।।

उँचा कद खड़ी नासिका, लगती बड़ी कमाल ।।
ग्रीवा सुराही लगता , हिरणी सी है चाल  ।।

तेरे  नैना  सीप  से ,  मन  लेते  हैं   मोह ।
मुख बिखरे काली घटा, करते उर विद्रोह ।।

जूड़े में सजा गजरा , करती तू मदहोश ।
लुभा रूप तेरा रहा ,किसको दूँ मैं दोष  ?

बोली मिश्री सी लगे , नैन कटीले बैन ।
झुकाती जब हो पलकें ,छिनती मेरा चैन ।।

नैनों में अजीब नशा, बढा रहे उन्माद ।
चितवन देख दिल पिघले , प्रेम रहे आबाद।।

जीना मुश्किल एक पल , कभी न जाओ दूर ।
संग-संग जीवन कटे , तुम जीवन का नूर ।।

   

Thursday 12 September 2019

विरह

विधे :-  गीत
रस :- श्रृंगार ( वियोग )
छंद/बहर :- विजात छंद

भरा आँगन जिया रोता,
हृदय प्रीतम बसा होता।

मलय अब तन जलाता है,
नयन भी जल बहाता है।
सभी से पीर बस पाऊँ,
पिया तुम बिन न मर जाऊँ।

नयन कजरा धुला होता,
भरा आँगन, जिया रोता।

सखी गजरा सजाती है,
अधर लाली लगाती है।
सजाया रूप मत वाला,
रहा फिर भी बदन काला।

सजन अब सेज ना सोता
भरा आँगन जिया रोता ।

जले है तन बदन देखो,
लगी मन में अगन देखो।
सजन सावन रुलाता है,
नहीं मन चैन पाता है।

सजन अब सेज ना सोता ,
भरा आँगन,जिया रोता।

बिना साथी तरस जाता,
अकेले कौन जी पाता।
सजन ये बोझ जीवन है,
ह्रदय में सिर्फ क्रन्दन है।

विरह के बीज ही बोता,
भरा आँगन जिया रोता।