प्रीत जल से भी निर्मल
राग द्वेष व अहंकार से परे
दर्पण दिखाता सत्य अविरल
भाव भंगिमायें हर इक लकीरें
सच्चे स्नेहिल भेद न खोले
दर्पण कभी झूठ न बोले ...
कुछ दोष कच्ची उम्र की
दिखता न मैल मन का
मूढ़ मन कसूर किसका
कर लेते विश्वास गैर पे
पड़ जाते प्रपंच के फेर में
सरल मन बाहुपाश के घेर में ..
शैतानों की नियत पढ़ न पाती
आँखों पे छाई रहती है धूल
समझ नही आती अपनी भूल
मासूम अदा के फेर में उड़े दुकूल
फिर ऐसे समझौते कर लेती
अपनी वो लुटिया ही डुबो देती
और मुहब्बत बलि चढ़ जाती ..
मुश्किल है ढूंढना सच्ची प्रीति
पढ़ना असंभव किसी के चेहरे
चेहरों के जाने होते परतें कितने
बह बयार रही आधुनिकता की
शायद हो बदलाव नए दौर का
कोई मोल नहीं स्नेहिल रीति.... ।।
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