विधा- कविता(बाल रचना)
मैं तो हूँ एक छोटा सा बच्चा
लेकिन हूँ मैं मन का सच्चा
दादी दादू के आँखों का तारा
माँ के आंचल का हूँ सितारा ..
पापा का हूँ मैं कृष्ण कन्हैया
संग उनके खेलुँ भूल भूलैया
घुटने पे पापा झुलाते झूला
कान्धे पे चढ़ समाता न फूला...
गलियों में हम करते हैं हुडदंग
नित नए खेल से सब होते दंग
मित्रों की टोली में हम रहते मस्त
बाग बगीचे के मालिक होते पस्त
बच्चों के शरारतों से माँ परेशान
पल में भूले क्रोध, देख भोलापन
रोज ही शिकायतें लाए पड़ोसन
ऐसे ही अलमस्त होते हैं बचपन..
सतसंग मित्रों की ज्यों मिले सच्चे
बन जाते संस्कारी अज्ञाकारी बच्चे
माता पिता के जब हम कहना मानते
सफलता के कसीदे नित्य ही काढ़ते
उषा झा (स्वरचित)
उत्तराखंड (देहरादून)
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